बूढ़ी काकी कहती है


बूढ़ी काकी मुझे कहानी सुनाती है। मैं बड़े चाव से सुनता हूं। उसके चेहरे की झुर्रियां उसकी उम्र को ढक नहीं सकतीं। वह बताती जाती है, मैं सुनता जाता हूं।

काकी कहती है -‘जीवन के रंग एक से नहीं होते। बहुत उतार-चढ़ाव होते हैं, बड़ी फिसलन होती है। मामूली कुछ नहीं होता।’

मैं चुपचाप कभी अपने हाथों को खुजलाता हूं, कभी काकी के चेहरे को देखता हूं। समझ से परे लगता है कि एक व्यक्ति मेरे सामने है, जीवित है मेरी तरह। वह भी हंसता-बोलता है, फिर क्यों वह बूढ़ा है, मैं जवान।

बूढ़ी काकी से यह प्रश्न किया तो वह बोली -‘यह सच है कि हम पैदा हुये। यह भी सच है कि हम जिंदगी बिताने के लिये जीते हैं। और यह भी सच है कि उम्र बीतती है तो बुढ़ापा आना ही है।’

मैं अपने प्रश्न का उत्तर शायद ही पूरा पा सकूं क्योंकि यह सवाल और उत्तर उलझे हुये हैं। मैं पशोपेश में हूं कि पैदा सिर्फ बूढ़ा होने के लिये ही होते हैं या पैदा मरने के लिये होते हैं।

इसपर काकी थोड़ा हंसती है, कहती है -‘यह नियम है कि जो उत्पन्न हुआ है, वह समाप्त भी होगा। जैसे-जैसे वस्तुएं पुरानी होती जाती हैं, वे क्षीण भी होने लगती हैं और यहीं से उनका अंतिम अध्याय शुरु होता है। कहानी हर किसी की शुरु होती है, मगर खत्म होने के लिये। हम उन्हीं वस्तुओं में से हैं जो उम्र के बढ़ने के साथ ही क्षीण हो रही हैं।’

‘समय के बीतने के बाद किसी भी चीज की कीमत बदल जाती है। शुरुआत से अंत तक का सफर मजेदार ही रहता हो यह सही नहीं। अब यह निर्णय हमें करना है कि हम जर्जर काया वालों को सलाम करें या उन्हें जिनके बल पर दुनिया घूमती है। यह सच है कि दोनों महत्वहीन नहीं, लेकिन नजरिये की बात है कि फर्क महसूस किया जाता है।’

काकी मुझे प्यार से पुचकारती है। उसकी कहानी शुरु होती है-

‘घर का आंगन था, कोई रोक-टोक नहीं। बच्ची थी आखिर मैं। समय ही समय था, बीत जाये कोई गम नहीं। अठखेलियां होती थीं खूब। फिक्र का नामोनिशान न था। एक अनजानी सी लड़की, अनजान देश में जी रही थी। कायदा क्या होता है कौन जाने? बस मैं ही मैं थी, अपने में मस्त। मां-बाप की लाडली इकलौती नन्हीं परी। मां खुश होती, कहती-‘देखो, कैसे लगती है मेरी लाडो।’

‘हां, सबसे सुन्दर है ना।’ पिताजी भी मां के साथ कहते।

‘जी करता है देखती रहूं।’

‘मेरा भी मन नहीं करता आंख बचाने को।’

‘निहारती रहूं, बस इसी तरह।’

‘मैं भी.....।’

‘हां।’

‘सुन्दर राजकुमारी।’

‘प्यारी रानी।’

--------

‘भावुकता को समेटा नहीं जाता, वह तो बहती है, बहे चली जाती है। आंसू आंखों में मचलने के बाद गिरते रहे। बूंदे अनगिनत थीं।’ बूढ़ी काकी बोली।

‘मैं आज वह नहीं जो पहले थी और यही तो बदलाव की सच्चाई है। तुम छोटे हो, मैं बुजुर्ग कितना फर्क है।’

इतना कहकर काकी रुक गयी। उसका चेहरा कुछ गंभीर हो गया। काकी किसी सोच में पड़ गयी।

यह सोच भी अजीब चीज होती है। वक्त के साथ चलती है और वक्त-बे-वक्त सिमट भी जाती है।

काकी से मैंने पूछा -‘आप कुछ पुरानी यादें टटोल कर भावुक क्यों हो गयीं?’

काकी ने मुस्कराहट के साथ कहा -‘पुरानी बातें यूं भूली नहीं जातीं। कई ऐसे पल होते हैं जिन्हें हम कीमती कहते हैं। उन्हें कहां आसानी से भुलाया जा सकता है। छाप गहरी हो तो वह जीवन भर के लिये अमिट हो जाती है और जिंदगी में एक छाप नहीं कई रंग एक साथ अंकित हो जाते हैं। हम सोचते रह जाते हैं। उधर सारा खेल रचा जा चुका होता है। यह जीवन के रंग भी हैं।’

‘यादों की पोटली आकार में कितनी भी क्यों न हो, होती बे-हिसाब है। सदियां बीत जाती हैं इन्हें समझने में, लेकिन यादें इकट्ठा एक जिंदगी में इतनी हो जाती हैं, कि संजोते रहिये, और संजोते रहिये।’

काकी ने मुझे एहसास करा दिया था कि जिंदगी की हैसीयत क्या है। उसने मुझे समझा दिया था कि किस तरह जीवन जिया जाता है, और वह हमें समय देता है ताकि हम संसार के सभी रंगों से घुल मिल सकें।

उम्र तो बढ़ती जा रही है। जवानी बुढ़ापे की ओर निरंतर बढ़ती है। यह नियम है। ऐसा नियम जो कभी खत्म नहीं होता क्योंकि जिंदगी में सवाल हैं और सवालों में जिंदगी है, उम्र उससे पार जाने की कोशिश करती है जो मुमकिन नहीं।

बूढ़ी काकी ने जीवन का सार दिया। उसने हर पहलू को खुद महसूस किया है। वह अपनी झुर्रियों में सिमटी उस दास्तान को मुझे बता रही है जिसे जानना मेरे लिए जरुरी है। मैं उन पड़ावों पर नहीं गया कभी जिनपर काकी पहले से गुजरी है। उन रास्तों को मैंने पहले नहीं देखा, जिनपर उसने अनगिनत बाधाओं को पार किया है। उसका अनुभव जीवन को नई दिशा देगा।

काकी बोली -‘तुम यहां खोने आये हो। मैं कब की खो चुकी हूं। सरलता मायने नहीं रखती। कठिनाईयों से दो-चार होना नये अनुभवों को सिखाता है। मैं, तुम और हम सब यही करते आये हैं। सीखते, सिखाते और बचते-बचाते। असली परीक्षा की घड़ी में अनुभवों का महत्व बढ़ जाता है। बुढ़ापा अनुभव बांटता है। बुढ़ापा राह दिखाता है।’

मैं सोच में पड़ गया कि उम्र हर किसी के लिए नयी कहानी है। बहती हुई नदी अपने साथ रेत के कणों को बहाती, घोलती हुई बढ़ती है। पत्थरों को महीन पानी ने खरोंचा भी है। जिंदगी के लिए जो जरुरी है, वह जीवन की धारायें देती हैं, लेकिन वे थपेड़ों की शक्ल में भी आती हैं ताकि हम परिस्थितियों से लड़ना सीख जायें। बेहतर कल के लिए इस तरह विश्वास बढ़ता है।

बुढ़ापा वास्तव में खुद से खुद का साक्षात्कार है जहां कहानियां, पड़ाव और रोचकता साथ चलते हैं। वे यह नहीं कहते कि रुक जाओ, बल्कि वे निरंतर आगे बढ़ने की सीख देते हैं। जीवन को यही चाहिए।

मैं गंभीर हूं। बूढ़ी काकी गंभीर है।

हम दोनों जानते हैं कि जीवन भी गंभीर है। बुढ़ापा भी गंभीर है।

कभी-कभी लगता है जैसे हमारा जीवन बढ़ने और घटने में ही बीत जायेगा, और ऐसा हो भी रहा है।

-हरमिंदर सिंह.