उलझे हुये बोलों को सुनने की कोई गुंजाइश नहीं है। मैं अपने को स्थिति के साम्य करने की कोशिश कर रहा हूं। पल दो पल की मुस्कराहटों का मुझसे क्या लेना देना।
बोलों को लपकने की जरुरत जान नहीं पड़ती। पड़ाव अंतिम अवश्य है, लेकिन थकावट को किनारे लगाने का संघर्ष जारी है। इस संघर्ष का योद्धा और युद्ध का मैदान भी मैं ही हूं। परास्त हो सकूं या विजेता बनने का दंभ भरुं, इसमें संशय या हैरानी किसी मतलब की नहीं।
हार मेरी होनी है, यह मैं जान गया हूं। देर से ही सही, मगर आंखों की पलके उजाले और अंधेरे का फर्क नहीं करतीं।
मुट्ठी बंद करुं या खोलूं क्या फर्क पड़ता है। फर्क की तलाशी भी कोई ले नहीं सकता। सूखे ठूंठ की राख उंगलियों को सहला जाये, यह भी उम्मीद नहीं। सिलवटों को मिटाने की जुगत में रेत मलने से क्या फायदा।
सच से रुबरु अब हुआ हूं। अभी तक कहां जीता रहा?
-HARMINDER SINGH