एक कैदी की डायरी -8

जीवन का खेल ऐसा है जिसमें दुश्वारियां हर मोड़ पर मौजूद हैं। इंसान उनसे लड़ने की तैयारी तमाम जिंदगी करता है, लड़ता है, और जीत-हार का खेल खत्म नहीं होता। नित नई चुनौतियां उत्पन्न होकर रास्तों को इतना संकरा बना देती हैं कि हम उनसे गुजरते हुए भी घबराते हैं। घबराता इंसान है। वह खुद को इतना कमजोर समझ लेता है कि उसे जीवन से हताशा होने लगती है। इसे ही जीवन का बोझ कहा जाता है। असहाय सा, सहमा सा, सब कुछ सहता हुआ चलता है जीवन। रुक-रुक कर चलने वाली गाड़ी का मुसाफिर थका हारा ही होता है। उसके रास्ते वही होते हैं- कहीं किस्मत का बहाना होता है, कहीं उसका इक्का पराजित हो चुका होता है- शह मात का पुराना खेल। वह घायल हारे हुए सिपाही की तरह तिलमिला उठता है। अपमान का डंक उसकी पीड़ा को कई गुना बढ़ाता है। जख्मों पर समय नमक का काम करता है। चीखें आती हैं, और बहुत दर्द होता है। आंसू आंखों को नम करते रहते हैं। मैं वक्त की चोट खाया मुसाफिर बन चुका हूं। नाव मझधार में है, किनारा ढूंढ रहा हूं। किसी का कंधा नहीं जो उसपर सिर रख रो सकूं। हृदय की वेदना को बयान करने में शब्दों का अभाव है। मैं डूब भी तो नहीं सकता। ऐसे हालात हैं कि जीना पूरा नहीं और मरना अधूरा है। contd........
-harminder singh