बेताब है रोशनी,
दरार से झांकने को,
सही सलामत हूं मैं,
अकेला भी,
साथ नहीं कोई यहां,
सोच कहती है,
जलते दीये देखूं,
मोम का पिघलना देखूं।
कदमों को धीरे बढ़ा,
चलना चाहता हूं,
अंधेरे में रहा जीवन,
उजाला देखना चाहता हूं,
बीत गयी होली कब की,
रंगों में नहीं नहाया,
इस बार,
सिर्फ एक बार,
रोशनी में भीगना चाहता हूं,
लड़खड़ाते कदमों से ही सही,
सच कहूं,
मैं दिवाली देखना चाहता हूं।
-harminder singh
दरार से झांकने को,
सही सलामत हूं मैं,
अकेला भी,
साथ नहीं कोई यहां,
सोच कहती है,
जलते दीये देखूं,
मोम का पिघलना देखूं।
कदमों को धीरे बढ़ा,
चलना चाहता हूं,
अंधेरे में रहा जीवन,
उजाला देखना चाहता हूं,
बीत गयी होली कब की,
रंगों में नहीं नहाया,
इस बार,
सिर्फ एक बार,
रोशनी में भीगना चाहता हूं,
लड़खड़ाते कदमों से ही सही,
सच कहूं,
मैं दिवाली देखना चाहता हूं।
-harminder singh
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (1/11/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
लड़खड़ाते कदमों से ही सही,
ReplyDeleteसच कहूं,
मैं दिवाली देखना चाहता हूं।
sundar aur marmsparshi!!!!
उम्रदराज़ लोगों की चाहत मात्र एक बार दीवाली देखने की ...आशान्वित करती रचना ..
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