वृद्धाश्रम के अभागे




उम्र बढ़ती है, ख्यालात सिकुड़ते हैं। हां, तजुर्बा बढ़ता जाता है। अपने में सिकुड़ने का मन करता है। यह हकीकत का जायका है। विचारों की आंधी चलती है लेकिन टूटी-बिखरी और अधूरी।

हृदय की कठोरता पिघलने लगती है। अपनेपन की तलाश रहती है, लेकिन अपने पास नहीं होते। यादों का सहारा होता है बस। रोती हैं यादें भी, उन्हें याद करने वाले भी। मां की ममता उबलती है, पिता का प्यार, पर बुढ़ापा चुपचाप रहता है। वह दर्शक है जीवन के आखिरी पलों का और गवाह भी।
वृद्ध आश्रमों में बहुत उम्रदराज रहते हैं। उनकी खामोशी सब कुछ बयां करती है। उनकी नम और थकी आंखें भी शांत हैं। बाहर जर्जरता की चादर है तो अंदर के जीव की छटपटाहट मार्मिक है। यह जीवन का मर्म है। इन वृद्धों में से कईयों को उनके अपनों ने घर से बेघर किया है। इनसे पूछो तो भर्राये गले से कहते हैं-‘बच्चों को भूला नहीं जाता।’ जबकि इनके बच्चे इन्हें भूल गये। ये जर्जर लोग कहते हैं कि उनके अपनों ने जो उनके साथ किया, वे फिर भी उन्हें याद करते रहेंगे। अपने तो अपने होते हैं।

यह बुढ़ापे का प्रेम है। बुढ़ापा प्रेम का भूखा है। यह समय यूं ही ऐसे कटता नहीं। मन चंचल है लेकिन वह भी ठहर जाता है। जवानी हंसती है बुढ़ापे की बेबसी पर।

अपने बच्चों के प्रति प्यार तमाम जिंदगी कम नहीं होता। यह प्रकृति है, प्रेम की प्रकृति। मां हंसी थी जब बच्चा छोटा था। फिर और हंसी जब वह जवान हुआ। अब वह आश्रम में है जहां वह अकेली है। यह विडंबना है, जीवन की विडंबना। कुछ लोग तो हैं आसपास धीरज बंधाने को। पर वर्षों का दुलार थोड़े ही आसानी से भुलाया जा सकता है। जागती है ममता और एक मां, हां एक मां कुछ पल के लिए तिलमिला उठती है। यह अटूट स्नेह की तड़पन है।

आश्रम तो आश्रम हैं, घर नहीं। लेकिन सोच कभी बूढ़ी नहीं होती। वह कभी जर्जर नहीं होती, ताजी रहती है। मां झटपटा रही है, वियोग की पीड़ा और दूरी का दर्द। घड़ी की सूई, टिक-टिक कर कुछ इशारा कर रही है। नम और धुंधली आंखों से साफ दिखाई नहीं दे रहा। वक्त कम है और यादें बेहिसाब।

दर्द बांटने को और भी जर्जर काया वाले हैं। वे खुश तो बिल्कुल नहीं। निराशा उन्हें भी घेरे हैं। क्या करें किसी तरह ढांढस बंधा रहे हैं एक दूसरे का।

महिलाओं के लिए यह कष्टकारी समय है। वृद्धाश्रम में उन्हें वक्त काटने को विवश होना पड़ रहा है। कुछ को बेटों ने घर से बेघर किया, कुछ को बहुओं ने पर दोनों अपने हैं, आज भी। पता नहीं क्यों भूले नहीं भुलाये जाते।

आज उनकी जिंदगी के उन पलों को लौटा नहीं सकते। ऐसा जरुर कुछ कर सकते हैं ताकि वे कुछ देर अपना दर्द भूल सकें। बुढ़ापा यही चाहता है। वह सहारा चाहता है, चाहें कुछ पलों का ही क्यों न हो। यहां सूखा हुआ ऐसा रेगिस्तान हैं जहां एक बूंद की भी कीमत है।

-Harminder Singh