एक कैदी की डायरी -14

यह सच है कि जीवन एक कहानी की तरह है। कहानी की शुरुआत होती है और वह समाप्त भी हो जाती है। यही सब तो हमारे साथ होता है। वे लोग ही आपस में मिलते हैं जिनकी कहानी एक तरह की होती है। वे लोग ही मित्र होते हैं जिनके विचार एक जैसे हों। अगर मित्र दुखी है तो वह हमारे दुख को अपना मानकर हमारा साथ देगा।

जो लोग मुझे मिले, जिन्हें मैंने अपने हृदय का हाल बताया वे सब मेरी ही तरह टूटे हुए और असहाय थे। वे मुझसे कहीं अधिक कष्टकारी समय को बर्दाश्त कर रहे थे, लेकिन उनकी ताकत क्षीण नहीं हो रही थी क्योंकि वे जीवन से हारना नहीं चाहते थे। उनके लिए जीवन संघर्ष का मैदान है। ‘इंसान वही होता है जो लड़ता हुआ मरे। संघर्ष करने की क्षमता हमारे भीतर मौजूद है। तुम कर कर तो देखो।’ अब्दुल ने मुझसे कहा था। शायद कुछ लोग कहकर कर जाते हैं, कुछ केवल कहते रह जाते हैं। अब्दुल ने तबाही का दर्द झेला। उसने खुद को संभाला। यह उसका संघर्ष था क्योंकि स्वयं से लड़ना बहुत मुश्किल है।

मैं आज फिर से उदास हूं। मेरा एक साथी कैदी सादाब चुप सा रहने लगा है। पिछले कई दिनों से पता नहीं क्या हुआ कि वह मायूस रहता है। उसका चेहरा काफी शांत लगता है। मैंने उससे पूछा नहीं, लेकिन लगता है कि वह अंदर ही अंदर दुखी है। ऐसा होता है जब हम हृदय से अधिक सोचना शुरु कर देते हैं। हमारा मन कुछ सोचता है, दिमाग कुछ। तब अजीब सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। मैं उसके हृदय को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता। इसलिए मैंने उससे बिल्कुल नहीं पूछा कि वह उदास क्यों है? हम ऐसा करते भी नहीं क्योंकि हर किसी का अपना व्यक्तिगत जीवन होता है जिसके बारे में हर कोई बताना भी तो नहीं चाहता।

सादाब काफी हंसता था। हालांकि वह खुश नहीं था, मगर वह हंस देता था। शायद इससे उसका दुख कम हो जाता था। उसकी एक मुस्कराहट से मुझे भी काफी राहत मिलती थी। ऐसा अक्सर होता था। कोई बात होती तो गंभीरता से उसपर वार्तालाप होता। जब कुछ अधिक गहरापन आ जाता तो वह अपनी हंसी को बीच में लाकर उसमें उथलापन ला देता। उसके विचार मुझे प्रभावित करते हैं। मैं सोचता हूं कि वह पहले मुझसे काफी कुछ कहता आया है, फिर कुछ दिनों से क्यों अपनी व्यथा नहीं बताना चाहता। मैं किसी को दुखी नहीं देखना चाहता।

इंसान इसलिए इंसान कहलाता है क्योंकि उसमें इंसानियत है और इंसानियत कहती है कि दूसरों की जरुरत पड़ने पर जहां तक हो सके मदद करो। उन्हें यदि किसी चीज की जरुरत है उसे उपलब्ध कराओ। मैं चाहता हूं कि वह इस तरह गुमसुम न रहे। उसने मुझे कई बार हौंसला दिया है। मैं भी कम हताशा से भरा नहीं, बल्कि अपने आसपास कई लोगों के कारण कभी-कभी बहुत कमजोर हो जाता हूं। इंसान कमजोर नहीं होता, उसे लोग ऐसा बना देते हैं। कुछ बातों का असर होता है, कुछ स्थितियों का, लेकिन हम खुद को विचारों से लड़ता हुआ असहाय पाते हैं। फिर कहते हैं कि जीना उतना आसान नहीं। वाकई जीना उतना आसान नहीं। शायद मरना भी कठिन है।

मैंने सादाब से कहा कि तुम हंसना बंद कर दो। हालांकि यह एक मजाक की तरह था। इसपर वह मुस्कराया। सुबह शायद मैं उससे खुलकर बात करने की कोशिश करुं कि वह चुप क्यों है? अब यह मैं उसपर छोड़ता हूं कि वह क्या उत्तर दे। हम सवाल तो पूछ लेते हैं, मगर उत्तर का रुप मालूम नहीं होता। जिंदगी में सवाल इतने हैं कि जिंदगी कम पड़ जायेगी। नीरसता एक अधूरेपन का अहसास कराती है। हम चुपचाप रहते हैं, केवल सोचते हैं। मन में एक कशमकश उठ गिर रही होती है। यहीं हम एक आंतरिक लड़ाई लड़ रहे होते हैं। इस समय जंग का मैदान हम स्वयं ही होते हैं। अजीब दौर से गुजर रहे होते हैं और मन में एक घबराहट भी होती है।

मेरे साथ कई बार ऐसा हुआ है कि मैं बहुत घबरा गया हूं। मैं खुद को पराजित व्यक्ति नहीं कहना चाहता। यह अलग बात है कि मैं मन को निराशा से बचाने की कोशिश करता हूं, पर हर बार हार जाता हूं। साथ ही हारता है मेरा मन भी। सादाब को देखता हूं तो लगता है कि वह बहुत कुछ कहना चाहता है। उसकी एक-एक बात मैं ध्यान से सुनता हूं। वह सोचता बहुत है, ऐसा उसका चेहरा बताता है। उसकी आंखें थकी जरुर हैं, लेकिन उसके हंसने पर वे भी हंसती हैं। उसे मैं पहले अच्छी तरह जानता था, लेकिन अब धीरे-धीरे वह मुझसे कई बातें कर जाता है। शायद उसे लगता है कि वह मुझे समझता है और मैं उसे। फिर भी वह कई बातें खुलकर नहीं बता पाता क्योंकि ऐसा करना उसे उचित नहीं लगता।

मुझे काफी प्रसन्नता हुई कि सादाब फिर से मुझसे बातें करने लगा। उसके पास उलझनें बहुत हैं, और वह उनका हल ढूंढता रहता है। मैं शायद ऐसा कम ही कर पाता हूं।

कुछ लोग हम पर प्रभाव डालते हैं, हम प्रभावित होते हैं और एक दिन ऐसा भी आता है जब प्रभाव का असर होता है। अच्छे लोग हमारी दुनिया को बदल देते हैं। धीरे-धीरे हम उनसे जुड़ाव महसूस करने लगते हैं।

सादाब ने मुझसे कई बार कहा कि वह वक्त आने पर सब कुछ बता देगा। उसकी बातें मुझे सच लगती हैं। ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि मुझे उससे लगाव हो गया है। यह रिश्ता मामूली है, पर मायने वाला है। इसकी गांठ दिन-ब-दिन मजबूत होती जा रही है। मुझे मालूम नहीं कब मैंने उसे अपना कह दिया। यह हमारे भावों से जुड़ा है कि किस तरह हम दूसरों में अपनापन तलाशते हैं। यह एक प्रक्रिया की तरह जान पड़ता है- सच पूछा जाए तो मेरा जीवन शायद कुछ बदल जाए।

अहिस्ता-अहिस्ता भाव जुड़ते हैं। मन का खाली कोना चुपके से भर जाता है। हम शायद अंजान रहते हैं और अचानक बहुत कुछ बदल जाता है। बदल जाता है हमारा संसार, हम और दूसरे भी हमें अलग नजर आने लगते हैं।

-to be contd....

-Harminder Singh