मन की पीड़ा

पीड़ा है मन की,
मन में ही रहे,
जख्म गहरें हैं,
नासूर बन रहे।

अश्रु नीर बह गये,
निर्झर धार जैसे बहे,
पीर घनेरी है मन में,
मन कुंठित सहे,
हृदय आवेग, क्षोभ स्फुटित है,
मन की शंका क्या कहे,
विवाद याद हैं ही,
स्मरण ज्वाला बन रहे,
भुलाता तो मन नहीं,
समर जो मन में बहे।

पीड़ा है मन की,
मन में ही रहे,
जख्म गहरें हैं,
नासूर बन रहे।

पतझड़ अब हो गया,
ठूंठ क्यों बचा रहे,
अग्नि में जल जाए,
जब पात ही न रहे,
शांति क्षुब्ध हो गयी,
अशांत सागर ही बहे,
भ्रमित स्वप्न जीवन का,
देख-देख जी रहे,
कटोरा अमृत का समझ,
लहू घूंट पी रहे।

पीड़ा है मन की,
मन में ही रहे,
जख्म गहरें हैं,
नासूर बन रहे।

-harminder singh