मां

निस्वार्थ भाव से जना, एक अंकुरित बीज,
रोपा उसे संचित कर धरा पर, बढ़ने को पेड़ विशाल,

कोई जंगली कुचल न डाले, नन्हें उगते पौधे को,
ताड़-बाड़ बन बैठी वह, नन्हें के चारों ओर,

किया नींद का परित्याग, पेट को भी दिया अल्पहार,
लगी रही पालन-पोषण में, नित दिन-नित रात,

बनाया खून का पानी, छाती से कराया दुग्धपान,
नन्हें के खिलने पर खिली वह, मुरझाने पर मुरझायी,

पौधा बने न किसी पर आश्रित, बने न जीवन में लाचार,
शिक्षा-दीक्षा देकर, बढ़ाया मनोबल उसका अपार,

भटके न जीवन-पथ पर, बाधक न हो दुष्ट चट्टान,
नैतिकता का पाढ़ पढ़ाकर, किया भविष्य को तैयार,

हर घर में जाने को, भगवान बने जब लाचार,
‘मां’ की सृष्टि कर डाली, जानकर विल्पित आधार,

पेड़ बना जब विशाल, फल-फूलों से लदा-भरा,
जड़ में हुयी वह समाहित, देने को खाद-संस्कार,

कर्तव्य-दर-कर्तव्य निभाती वह, बात न हुई अधिकार की,
अनंत तक बनी रही प्रतिभूति, त्याग, तपस्या, सहृदयता, सद्भावना की,

उस कार्यकुशलता, महानता की प्रतिभूति को,
मैं भी करता नतमस्तक होकर, कोटि-कोटि प्रणाम।

-Gyanprakash Negi