यही बुढापा है, सच्चाई है



जर्जर किताब के पात्र,
दुनियादारी के मयखाने के कोने में,
कुछ बुढापे में, थोड़े धूल में सने हैं,
धूल की परत, पपडी बन आई है,
तो इसमें क्या बुराई है,
यह दस्तूर है, सच्चाई है.

एक बूंद की ठेस से,
परत चमक दिखा गयी,
हंसने वाले नहीं,
ये पात्र रोते हैं,
वजह क्या बतलाई है,
अक्षरों पर धुंध छायी है,
तो इसमें क्या बुराई है,
उदास मन की ओट में,
हर तरफ वीरानी जो छाई है,

छलकते पानी को हवा का झोंका,
रहा छीटों से नहला,
कभी इस ओर, कभी उस ओर,
तडपती रुहों की गरमाई है,

अगर सरकती नहीं टांगें,
तो इसमें क्या बुराई है,
यही बुढापा है, सच्चाई है.

-Harminder Singh