यादों की डोर


‘मीठी यादें और खूबसूरत बातें कितना सुकून पहुंचाती हैं।’ बूढ़ी काकी ने कहा।

‘जीवन को हमने किस तरह यादों में समेटा है। यह अद्भुत है, सचमुच जुदा।’

‘एक डाल से दूसरी डाल पर भी इठलाती हैं यादें। खिली हुई, बिखरी रोशनी की तरह, मानो आंखें चैंधिया जायें। उम्र की थकान बीते पलों की दास्तान सुन उतर जाती है। एक ताजगी शरीर की सिलवटों को कम करती सी प्रतीत होती है। हरियाली की रंगीन चादर जिसके रेशे नमीं को सोख लें, लिपट जाती है यह समझाते हुए कि जिंदगी अभी कायम है एक अनोखेपन के साथ।’

काकी यादों की मिठास को महसूस कर रही है। यादों की डोर बातों की उंगली पकड़कर आगे बढ़ रही है। बुढ़ापे का एहसास न के बराबर है। सिमटना था जिसे वह सिमट रहा है। प्रक्रिया चरम पर है। पल है -काफी भी, नाकाफी भी।

मैंने पूछा-‘तरावट किस हिस्से को छू रही है?’

इसपर काकी बोली-‘छू लिया सबकुछ। शेष रहा नहीं कुछ भी, बल्कि एक गति दे दी उम्रदराज को। वक्त मामूली था। अंधेरे की ओट लिए इंसान स्वयं से बातें कर रहा था। वजह थी नहीं, बड़बड़ाना बे-वजह था। जीने का विषय अर्थ खोता जा रहा था। यादों के सहारे सफर कट रहा है। यह अनमोल पल है जर्जरता की रजाई में लिपटी बूढ़ी हड्डियों के लिए।’

‘बेशक वक्त बीत रहा है। मालूम है कि प्रक्रिया धीमी है, मगर वास्तविकता यही है। इंसान की आंखें उतना नहीं देख पा रहीं। दिमाग को समझने में दिक्कत है। शरीर ऊर्जा खो चुका। पुर्जे जबाव दे रहे हैं। जंग लगी दीवारों पर चमक खो चुकी।’

‘मेरी कल्पनायें कायम हैं। सोच रही हूं, कोशिश पूरी है। लिपट कर यादों से चंद आंसू गिरे हैं फर्श पर।’
इतना कहकर काकी ने मेरी ओर देखा।

उसकी आंखें नम थीं। चेहरे पर एक मुस्कान थी।

जीवन खुश था क्योंकि यादों ने पलों को यादगार बना दिया था। वह यादों का उत्सव था।

-harminder singh

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