बुढ़ापा सब पर भारी


काका को आस सिर्फ मौसम बदलने की है। दिन में थोड़ा बहुत नींद आ जाती है। पहले से काफी कमजोर हो गये हैं। यह मौसम का असर भी कहा जा सकता है और उनकी उम्र का तकाजा भी।

‘चलने-फिरने में लाचारी है क्योंकि बुढ़ापा सब पर भारी है।’ उन्होंने कहा।

मैं बोला,‘उम्र जैसी है ठीक है, यह आप ने ही कहा था काका। फिर आज बुढ़ापे का क्यों बुरा मानना।’

बूढ़े काका ने समझाया,‘बेटा जिंदगी के पड़ाव ऐसे हैं जब इंसान अपनी उम्र से तंग आ जाता है। शायद मुझे भी अब ऐसा एहसास होने लगा है। मैं जिंदगी खुलकर जीना चाहता हूं। बुढ़ापे को हंसकर काटना चाहता हूं मगर अपने आसपास जो देखता हूं उससे मन खिन्न हो जाता है। तब मन करता है कि जीने का कोई लाभ नहीं।’

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‘हमारे पास यहां कुछ नहीं। अकेले ही तो हैं हम। बिना मतलब का यह दिखावा है, पहनावा है, रुतबा और शान है। मगर नहीं, हम जबतक जियेंगे अपने को श्रेष्ठ साबित करते रहेंगे। बुढ़ापा जबतक नहीं आता हम बहुत कुछ हो सकते हैं। अनेक लोग हमसे घबरा सकते हैं, हमारी बात मान सकते हैं, लेकिन बाद में स्थितियां हमेशा के लिए बदल जाती हैं। उम्र के साथ इंसान की सोच में भी परिवर्तन आ जाता है।’

मैं सोचने लगा कि जिंदगी अपने आप बदल जाती है। इंसान में यह बदलाव बदलते मौसम के कारण होता है क्योंकि जिंदगी हजारों तरह की उमड़-घुमड़ से लिपटी हुई है जहां नित बदलाव होते रहते हैं जिनसे जीवन चलता है। दौड़ लंबी हो या छोटी, कदमों की तेजी या सुस्ती हार और जीत का फैसला निश्चित करती है। यही जीवन में बदलाव लाता है ताकि उतार-चढ़ाव आते रहे और नीरसता हावी न हो।

बुढ़ापे की कहानी हर बार पराजय से मिलकर चलती है। उम्र जीतती है, इंसान हारता है, लेकिन जीवन नहीं। बूढ़े काका में बदलाव उम्र का है। एक स्थिति ऐसी भी आयेगी और यह निश्चित है जब वे स्वयं से सवाल पूछेंगे कि ‘बुढ़ापा ऐसा क्यों है?’

-हरमिन्दर सिंह चाहल

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