जीवन का स्वाद फीका हो चला है…
अब क्या कुछ बचा है…..
लुट रही परछाईयां मेरी…
सिवा तेरे रक्खा क्या है…..
गहरा रही जो उम्मीद हमारी….
लफ्जों में थम रही सांसें….
अपनेपन की बात नहीं हुई….
जीने की आस काम आई है…
वक्त ने मेरे क्या बताया है….
उस ओर कितनी गहराई है….।
-हरमिन्दर सिंह
- पिता
- जीवन का उत्सव
- बचपन का आनंद
- मेरी मां
- कुत्तों की सभा
- पागलखाना (हास्य कविता)
- विदाई बड़ी दुखदायी
- जीवन और मरण
- बूढ़े शब्द