किताबों के पन्नों में गुम होने का डर लगता है। सोचता हूं कि जिंदगी एक आफत है। पन्ने बिखरे हैं, अस्त-व्यस्त शहर है। तलाश रहा उन टुकड़ों को जो कभी कुरचे बन सड़क पर उड़ चले थे। तलाश थी उन्हें किसी की जो अनजानों की तरह भटकने लगे।
वह मौसम था ही खौफनाक। तब जिंदगी भी पूछ बैठी -"किस मंजिल के हमसफर हो आप?"
मंजिलें थीं बेहिसाब, जाहिर करना बाकी था। फिर आखिरी वक्त का तकाज़ा भी था। कहना गवारा समझा, बोला -"मायूसी की शक्ल में तलाश लीजिये।"
सूरत तो मौका मिलते बदल जाती है। जाहिर है जिंदगी की शाम में वह रौनक न रही। लौ जो बातों की रोशनी में नहाती थी, गम के करीब सुकून पाते ही सुबकने लगी। हौंसला दिया तो चैन आया।
उम्र थी और तलाक की बात चल निकली। भला जिंदगी से रूठा थोड़े जाता है। उसे समझा है मैंने, जान गया उसकी जुर्रत और जरूरत को। वह न रूकी है, न ठहरी है। रूके, ठहरे हम हैं। हम उदास वह भी, फिर जिंदगी को कोई पन्ना क्यों न हो, वह अपनी लय में चलती गयी और साथ हम भी हो लिये।
बुढ़ापा आया तो चैन न पाया। काया को बेजान पाया। मन को मनाया तो चीज़ें तब्दील हुईं, हम भी। पर न उम्र कम हुई, न वक्त रूका। हां, जिंदगी चलती गयी।
-हरमिन्दर सिंह चाहल.
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