जिंदगी के कलम से टपकी स्याही मिटती नहीं

बूढ़ी काकी कहती है,‘‘जिंदगी की लड़ाई में विजेता कोई भी हो, लेकिन यह तय है कि खिलाड़ी बहुत हैं। हम चाहें, न चाहें, इसका हिस्सा हम हैं। आखिरी सांस तक रहेंगे।’

काकी के चेहरे की झुर्रियां पहले से अधिक अव्यवस्थित और शुष्क प्रतीत हो रही हैं। बूढ़ी आंखें असहाय लग रही हैं। चेहरा शांत मगर सलवटों की गहराई यह बताने के लिए काफी है कि जिंदगी कितना अनुभव लिये है। अनंत रहस्य छिपे हैं। उतावलापन कहीं दिखाई नहीं देता। थकी काया, सन से बाल। चमड़ी हड्डियों से नाता छोड़ती जा रही है।

‘‘यहां पराजय की बात मायने नहीं रखती। यह भी नहीं कहा जा सकता कि जीतने के बाद कुछ बदलाव आयेंगे या नियम हमारे अनुकूल हो जायेंगे। ऐसा बिल्कुल नहीं है और न हो सकता क्योंकि रेखायें खिंची हैं ताकि उन्हें मिटाया न जा सके। व्यवस्था है। सबकुछ उसी मुताबिक होगा। हम हाथ-पैर मारते रहें या किसी अन्य तरीके से मुद्दे को उठायें, जिंदगी के कलम से टपकी स्याही को मिटाया नहीं जा सकता।’’

‘‘मैं यह नहीं मानती कि जिंदगी में रुक कर रह जाना सही है। यह भी नहीं कि जब परिणाम तय हैं, तो फिर जद्दोजहद क्यों। मगर जिंदगी ठहर कर नहीं बीत सकती। हमें चलना है। सांस लेनी है। गुनगुनाना है। जीवन को आगे बढ़ना है। ठहर कर जीवन को नीरस और अर्थहीन नहीं बनाना। यह जिंदगी का मतलब नहीं है। यदि ऐसा होगा तो जिंदगी अपने मायने खो देगी। वह सिमट जायेगी। दायरे जो विकसित हुए थे, बिना मोल के साबित होंगे।’’

बूढ़ी काकी ने आगे कहा,‘‘मैं वृद्धा हूं। जर्जर हूं, लेकिन आशा के साथ जी रही हूं। मैंने अपने मन को खोया नहीं है। मन को खोना खुद को खोना है, और खुद को खोना सबकुछ खो देना है। भय नहीं है। हो भी क्यों। जो है ही नहीं, वह क्यों हो?’’

मैं सोचने लगा कि काकी सच कहती है। जिंदगी का अर्थ है। उसे जीना हमें है। उसे मायने देने हैं। हम इंसान हैं। मन को गिरने देने का मतलब खुद को गिराने जैसा है। आशा है, उत्साह है, फिर घबराहट कैसी।

यह संघर्ष ही तो है। यहां जय-पराजय महत्व नहीं रखती। उम्रदराज काकी सकारात्मक है। उसने बुढ़ापे को समझ लिया है। जान गयी है वह कि जिंदगी हर पल खुशी नहीं लाती, लेकिन यह भी नहीं कि जिंदगी हर पल दुख लाती है।

-हरमिन्दर सिंह चाहल.

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