रुंधा कंठ सबद नहीं उचरै, अब क्या करै परानी

रुंधा कंठ सबद नहीं उचरै

‘नैनहु नीर बहै तन खीना, केस भये दुध बानी,
रुंधा कंठ सबद नहीं उचरै, अब क्या करै परानी।’

भक्त कवि भीखन ने इन दो पंक्तियों में वृद्धावस्था का बहुत ही सटीक चित्र खींचा है। वे स्पष्ट करते हैं कि नेत्रों से अश्रुधारा बह रही है, शरीर क्षीण हो चुका है, केश दूध की तरह सफेद हो चुके, बोलते समय गला भी रुंध जाता है जिससे स्पष्ट शब्द भी नहीं निकल पाते। हे प्राणी इन समस्याओं का किसी के पास कोई उपाय नहीं।

वास्तव में वृद्धों के प्रति श्रद्धा आदि की बातें करने वालों की कमी नहीं लेकिन दयनीय अवस्था में पहुंचा हमारे समाज का अति महत्वपूर्ण तबका आज उपेक्षित और अकेला पड़ता जा रहा है। जिस बीते कल में आज के वृद्धों ने अपनी तमन्ना युवावस्था को आधुनिक युवाओं के सृजन और उज्जवल जीवन के लिए समर्पित कर दिया, आज अपने ही खून की उपेक्षा का दंश झेलने को क्यों अभिशप्त हैं? इस प्रश्न का उत्तर हमारे वृद्ध ढूंढ रहे हैं।

मानव सभ्यता समय की रफ्तार के साथ उत्तरोत्तर प्रगति की ओर बढ़ती रही है। यह क्रम जारी है। जैसे-जैसे मानव आर्थिक प्रगति की ओर बढ़ रहा है उसके भौतिक सुख-सुविधाओं की भूख मृगतृष्णा का रुप लेती जा रही है। ऐसे में अधिकाधिक सुख साधन संपन्न होने के कारण वह दूसरों के दुख-दर्द और सहानुभूति के प्रति उदासीन होता जा रहा है। ऐसे वृद्ध जो असहाय से होकर आयु के अंतिम दौर में हैं, उन्हें हमारी युवा पीढ़ी अनावश्यक बोझ और अपनी सुख-सुविधाओं में बाधक मान रही है। जबकि जीवन के अंतिम पड़ाव में उन्हें अधिक सेवा-सुश्रुषा की आवश्यकता है। वे कानूनी और मानवीय दृष्टि से इसके हकदार हैं।

ऐसा नहीं कि सभी वृद्ध उपेक्षित होने का दंश झेलने को बाध्य हैं। बल्कि ऐसे बूढ़ों की खासी तादाद है जो पूर्ण गौरव, अधिकार, सम्मान और सुविधाओं के साथ अपने परिवारों में जीवन यापन कर रहे हैं।

कई जगह युवा स्त्री-पुरुष अपने वृद्ध परिजनों पर अनावश्यक प्रतिबंध लादकर उन्हें संयम और त्यागपूर्ण जीवन की सलाह देते हैं। उन्हें शायद पता नहीं कि वृद्धावस्था में जिह्वा स्वाद, बाल स्नेह तथा कई अन्य वासनायें युवा अवस्था से भी बलवती हो उठती हैं।

वृद्धावस्था मेरे विचार से ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति को सर्वाधिक स्वच्छंदता और स्वतंत्रता की जरुरत है। यदि इस उम्र में ये दोनों चीजें उन्हें मिल जायें तो बुढ़ापा मानव जीवन को दुख के बजाय सुख में बदल सकता है। घोर निराशा, शारीरिक कष्ट और इस सबके बीच पारिवारिक उपेक्षा बुढ़ापे की पीड़ा को और बढ़ाता है।

अंतिम पड़ाव का राही हमेशा अपने परिवार के सदस्यों की खुशहाली और संपन्नता की मंगलकामना ही करता है। ऐसे में यदि परिवार के किसी भी सदस्य से थोड़ी भी उपेक्षा का आभास होता है उसकी चोट का दर्द भुक्तभोगी ही जानता है। बुढ़ापा प्रेम और सहानुभूति का भूखा होता है। उसे किसी धन, धान्य, ऐश्वर्य अथवा कीर्ति की कामना नहीं होती। जिसने जीवन के लंबे संघर्ष में न जाने किन-किन दुख-दर्दों को दरकिनार करते हुए किसी योग्य बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी उसे हमसे केवल प्यार और सौहार्द की दरकार है। क्या हम अपने बुजुर्गों को यह भी नहीं दे सकते?

यदि प्राचीन इतिहास पर दृष्टि डालें तो वृद्धावस्था में बड़े-बड़े महापुरुषों और शक्तिशाली लोगों को भी उनकी संतानों और पौत्र-पौत्रियों तक ने गंभीरता से नहीं लिया।

श्रीकृष्ण तक बुढ़ापे के दौरान अपने विशाल परिवार के बाल-बच्चों से परेशान थे। अपने दर्द को उन्होंने नारद मुनि से बयान किया था। संत कबीर जैसे समाज सुधारक अपने बेटे को नहीं सुधार सके। उन्हें कहना पड़ा था -‘बूड़ा वंश कबीर का उपजा पूत ‘कमाल’।’ गुरु नानक देव जी के दोनों बेटे भी उनका पूर्णतः अनुसरण नहीं कर पाये। अंततः अपने मिशन को जारी रखने के लिए उन्होंने अपने एक शिष्य को योग्य मानकर अपना वारिस चुना। इस तरह की लंबी सूची है। ये सभी ऐसे महापुरुष हुए हैं जिनके अनुयायिओं की भारी संख्या है।

युवा पीढ़ी को मानना चाहिए कि जिन कंधों पर चढ़कर वे जीवन के सबसे अच्छे पड़ाव तक आये हैं आज उन्हीं कंधों को हमारे सहारे की दरकार है। हमें समर्पित भाव से अपने बुजुर्गों की सेवा का दायित्व निभाना चाहिए।

शास्त्रोक्ति है -
‘अभिवादनशीलस्य च नित्यं वृद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।’

-हरमिंदर सिंह चाहल.