एक कैदी की डायरी -3



जेल की रोटियां उतनी बुरी नहीं लगतीं। आदतें इंसान को क्या नहीं बना देतीं। आखिर मैं भी इंसान हूं। मैं दाल-रोटी को आसानी से खा सकता हूं। इतने दिनों से खाते-खाते आदत जो पड़ गयी है। दूसरों की डांट का मुझे बुरा नहीं लगता। गाली-गलौच में रहने की आदत भी हो गयी है।

जेल का संसार बाहर से एकदम शांत लगता है, लेकिन भीतर इसमें उथलपुथल भरी है। इसका कारण भी लोग हैं और निवारण भी। यह दुनिया बाहरी दुनिया से अलग जरुर है, लेकिन यहां लोग बसतें हैं जिनका मन धीरे-धीरे मर रहे होते हैं। कोई आप पर तरस नहीं खाता क्योंकि यह आपकी नियति बन चुकी है। भावनाएं किसी मोल की नहीं। भावनाओं की जहां कदर नहीं की जाती वहां इंसानियत की भी कोई कीमत नहीं।

इंसान अच्छे होते हैं, उनके विचार उन्हें बुरा और भला बनाते हैं। मैं अपनी छोटी उमz में दो दुनिया के नजारे देख चुका हूं। एक दुनिया घटती-बढ़ती, दौड़ती-चलती दिखाई देती है, दुख-सुख के साथ। वहां सवेरा चहकता हुआ होता है, एकदम आजाद। यहां सवेरा जरुर होता है, लेकिन उसकी छटा में ताजगी नहीं है। एक ऐसा सवेरा जो आजाद बिल्कुल नहीं। यह कैदखाने की अपनी सुबह होती है। यहां के पंछी कैद हैं और यहां रहकर लगता है, यहीं के होकर रह गए हैं। उड़ने की आकांक्षाओं के पंख कतरे जा चुके हैं। उन्हें जोड़ना मुश्किल लगता है। उदासी के सिवा कुछ नहीं है यहां। नीरसता हर कैदी की मित्र लगती है। चेहरे रौनक लिए नहीं हैं। शायद रौनक धूल की तरह सिमट गयी है। बुझे हुए चेहरों का देश लगती है जेलें। आंखों की थकावट समय-दर-समय बढ़ती जाती है। उनकी चपलता एकदम शांत हो गयी है।

वक्त को पकड़ने की हम कोशिश करते हैं। वह है कि सरपट दौड़े जाता है। इतनी तेज की कभी-कभी यह लगता है कि अरे, यह क्या हुआ? हम जानते हैं कि वक्त सिमटता जाता है और आगे बढ़ता जाता है। धीरे-धीरे और तेज-तेज, लेकिन समय का पहिया रुकता नहीं। मुझे मालूम है कि मेरी सुबह कभी आजाद होगी। मैं यह भी मानता हूं कि ऐसा केवल भविष्य में हो सकता है। वर्तमान मेरे साथ है, भूत तो कब का पीछे छूट गया। वह हर पल जो बीत गया अब हमारा उसपर हक जताने का आधार ही नहीं बनता। इस पल पर हम भरोसा कर सकते हैं जबकि भविष्य में कुछ भी हो सकता है, यह हमें मालूम नहीं।

-harminder singh