मौत की शक्ल को ढूंढ रहा हूं,
मिलती ही नहीं, क्यों गुम है,
वह खड़ी चौखट पर,
यह समझता कोई नहीं,
सरक-सरक कर चलने वाला,
जीवन पागल बिल्कुल नहीं,
ऐसा होता है जरुर,
नहीं किसी का कसूर,
समय सभी का ऐसा आता,
जब नहीं पछताया जाता,
वेदना-संवेदना,
बहती अश्रू धार,
निर्जन लगता जग सारा,
सूना सारा संसार,
पगला-पगला कह कर अब,
मुझे चिढ़ाया जाता है,
कंठ न उतरे शब्द कोई,
विलाप करुण हो आता है,
क्रीड़ा-कौतुक सब स्वाहा,
अब तरणी तर जाना है,
पूर्ण नहीं, अपूर्ण भला मैं,
पूर्ण में मिल जाना है,
जीवन-रस की चाह वहीं है,
नित्य का आना जाना है,
संगीत-मधुर, तान सुरीली,
‘हरिपुर’ का इक गाना है।
-harminder singh
मंगलवार 31 अगस्त को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है .कृपया वहाँ आ कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ....आपका इंतज़ार रहेगा ..आपकी अभिव्यक्ति ही हमारी प्रेरणा है ... आभार
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/
यह कविता मन के भावों को कहने में सक्षम है ..पसंद आई
ReplyDeleteविशेषकर ये पंक्तियाँ अभिभूत करती हैं, यथार्थ को बहुत सुन्दर दर्शाया है:
ReplyDeleteजीवन-रस की चाह वहीं है,
नित्य का आना जाना है,
संगीत-मधुर, तान सुरीली,
‘हरिपुर’ का इक गाना है।
"क्रीड़ा-कौतुक सब स्वाहा,
ReplyDeleteअब तरणी तर जाना है,
पूर्ण नहीं, अपूर्ण भला मैं,
पूर्ण में मिल जाना है-" yahee stya hai!
ashok lav
जीवन-रस की चाह वहीं है,
ReplyDeleteनित्य का आना जाना है,
संगीत-मधुर, तान सुरीली,
‘हरिपुर’ का इक गाना है।
ek saarthak rachna!
क्रीड़ा-कौतुक सब स्वाहा,
ReplyDeleteअब तरणी तर जाना है,
पूर्ण नहीं, अपूर्ण भला मैं,
पूर्ण में मिल जाना है,
Ek kasak, ek peera..shayad is kavita ki prerana bhi.
Yeh panktiyan hamen is sachchayee se rubaru karati hain ke ek din hamare sath bhi yehi hoga!
उफ़्फ़..कितना दर्द...कितनी वेदना....इसे क्यों भोगने को मजबूर है...?बुढापा, जीवन का एक अपरिमित आनंद क्यों नही बन सका..जैसा कि यहां है..पश्चिम में..बुजुर्जो की दुर्दशा के लिए सब जिम्मेदार है, मैं, समाज, सरकार और बहुत हद तक बुजुर्ग भी...अपने को किसी के सहारे छोड देने की तहज़ीब..भले ही वह बेटा/बेटी क्यों न हो...!!!
ReplyDeleteसंवेदनशील रचना है..प्रश्न उठाती है..कामयाब.
सादर