गुरु ऐसे ही होते हैं

कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें आप भूल नहीं सकते। उनके आप आजीवन आभारी रहते हैं। उनसे आपने बहुत कुछ सीखा होता है। हम उनका धन्यवाद पहले करना चाहेंगे जिन्होंने हमें शिक्षा दी, बाद में अपने माता-पिता का। एक ने हमें जन्म दिया-बहुत बड़ा उपकार किया। गुरुओं ने हमें जीने की कला सिखाई-यह सबसे बड़ा उपकार है।

हमने शरारत की, उन्होंने हमें डांटा भी। हम अगर रोये, उन्होंने हंसाया भी। हम लड़खड़ाए, उन्होंने सहारा दिया। अपनी उंगली दे आगे बढ़ाया, हमारा हौंसला गिरने न दिया। यह उनका प्रेम है और कभी न खत्म होने वाला- निरंतर प्रेम।

चुपचाप वे रहे, खूब बोले भी, लेकिन नजर बराबर हम पर रही। घर से स्कूल का सफर हमने तय किया। जीवन के सफर के बारे में हमारे गुरुओं ने हमें बताया।

बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपनों से बड़ों का हमेशा अपमान किया। इसमें उनका आनंद रहा। वे भूल गये कि वे क्या कर रहे हैं। पहले अपने माता-पिता से शुरुआत की। घर में कोहराम मचाया। स्कूल में गये तो वहां अपने गुरुओं को सम्मान नहीं दिया। ये वे लोग हैं जो सम्मान का मतलब ही नहीं जानते। यदि जानते तो ऐसा कभी नहीं करते।

मैं अपने गुरुओं को आज तक नहीं भूला। मुझे लगता है कि उनकी बताई बातों को हम खोते जा रहे हैं। मुझे नहीं लगता कि उन्होंने हमें कभी कुछ गलत बताया हो।

रंजना दूबे को मैंने कम हंसते हुये देखा, जबकि विजया डोगरे का मुस्कराता चेहरा मुझे आज भी याद है। दोनों का अपना तरीका था, उनके विषय अलग-अलग थे, लेकिन मकसद एक था और आज भी ये शिक्षिकायें अपने कार्य में तल्लीन हैं।

डोगरा जी कहती थीं कि वे हम सभी को जानती हैं। उनका मतलब था कि वे हमारी अच्छाईयों-बुराईयों को परख चुकी थीं। ऐसे लोग आप पर असर डालते हैं। बच्चों का मस्तिष्क अधिक संवेदनशील होता है। उसे हल्की सी आहट भी चैंका देती है। उनका च’मा शायद आज भी उनके साथ है जिसकी नजर हर बारीकी को परखती है, और मुझे लगता है कि वे बच्चों को एक मां का प्यार भी करती हैं, मुझे तब ऐसा महसूस हुआ था। चेहरे पर सख्ती के भाव आ जरुर जाते हैं, लेकिन वे वैसी बिल्कुल भी नहीं थीं, अब बदल गयी हों ऐसा मैं कह नहीं सकता।

डोगरा जी हमारी क्लास टीचर रहीं, कई साल तक। उनके सानिध्य में सभी बच्चों को अपनापन महसूस हुआ। जिन लोगों से आप खुश रहते हैं, जो आपको दूसरों की अपेक्षा बेहतर सकते हैं, उनसे एक लगाव सा हो जाता है। वक्त कितना भी बीत जाये, डोर कमजोर नहीं पड़ती। मुझे नहीं लगता स्कूल से विदा लेकर गये बच्चे उन्हें भूले होंगे। मैं यह भी उम्मीद करता हूं कि वे हमें भूली नहीं होंगी।

वे हमें गणित पढ़ाती थीं। मैं कितना पढ़ता था, यह वह अच्छी तरह जानती हैं। एक बात मैं बताना चाहूंगा कि मैथ से मैं कई बार नहीं, बहुत बार घबरा जाता था, लेकिन कोशिश जारी रहती थी। सबसे अधिक मेहनत मैंने गणित में ही की, लेकिन उतना अधिक हासिल नहीं हो सका। उनकी भाषा साधारण थी। उनकी कक्षा में बोर होने का कोई मतलब ही नहीं था। मेरे हिसाब से गणित की बारीकियों को उनसे बेहतर हमें कोई समझा नहीं सकता था क्योंकि धर्मेन्द्र चतुर्वेदी से बच्चे खौफ खाते थे। वे दूसरे सेक्शन में मैथ पढ़ाते थे।

विजया डोगरा बच्चों की मानसिकता को समझती थीं, इसलिये उनके साथ हम सहज थे। जितने आप बाहर से नरम होते हैं, कई बार गुस्सा आने पर वह काफी बड़ा लगता है। उन्हें गुस्सा कम आता था। एक-आध बार उन्होंने आवेश में आकर गलती करने वालों की काफी खिंचाई की लेकिन वे पिघल भी जल्दी जाती थीं। यह उनका प्रेम था जैसा एक मां का अपने बच्चों से होता है- सख्त भी और नरम भी।

-हरमिन्दर सिंह