सदियों पहले की बातें

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भूलना बातों को किसी तह में छिपा देता है, यादों को दबा देता है। समय की परत मोटी होती जाती है। कहते हैं कि यादें धुंधली पड़ जाती हैं। दूर किसी कोने से फीकी रोशनी के फर्श पर पड़ने से अक्षरों में चमक नहीं आ जाती। कागज़ के टुकड़े जब बिखर जाते हैं, फट जाते हैं, और यकायक हवा का झोंका उन्हें छिन्न-भिन्न कर दे तो अवसरों की छटपटाहट महसूस होते देर नहीं लगती।

मैंने बारीकी से चीजों को पढ़ा है। एहसास किया है उनका जिन्हें वक्त ने दम तोड़ने पर विवश कर दिया। क्या गला घोंटकर निगलना रुखेपन की अहमियत खत्म कर देता है? क्या पुरानी चादर में पनपे छेद गर्त के दाखिले के लिए कम है?

सदियों पहले की बातें, गुजरे जमाने की बातें और वह मखमली हंसी, न जाने कितना कुछ समेटे हुए है। वक्त की लापरवाही और नन्हीं उंगलियों का स्पर्श मुझे कितना सुकून पहुंचाता है। आंखों को मूंद कर बैठना और तालाब के पानी पर तैरती हवा कान के करीब से गुजरती। मैं ठिठकता नहीं था, बल्कि मन को कहता -’जिंदगी और चाहिए।’

जिंदगी भी कितनी खामोशी से कह जाती -‘कितना।’

मेरा जबाव होता -‘वक्त के लिए काफी हो।’

उधर से उत्तर न आता। मैं समझ जाता और हवा के झोंके मुझे आगोश में ले लेते।

सचमुच आसमान के गोते अजीब होते हैं। चंचलता की तान कभी पुरानी नहीं हो सकती। अजीब हम होते हैं। कहते हुए बिना मतलब की बातें जिनका उधार चुकता करते हुए जिंदगी गुजर जाये या पार पाने की जद्दोजहद में जिंदगी संवर जाये।

बीत गयी सदियां लेकिन यादें बाकी हैं। हां, बातें सदियों पुरानी जरुर हैं, मगर वे हंसकर बोलती हैं कितना कुछ जो मुश्किल दिखता जरुर है, और कहता कितना कुछ है ; समुद्र की लहरों के बीच उछलकूद जहां सागर उथला है।

-हरमिन्दर सिंह चाहल.

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