थोड़ा रो लो, मन हल्का हो जाएगा



‘‘मन भारी है, क्या रोकर मन हल्का हो जाता है?’ मैंने बूढ़ी काकी से पूछा।

बूढ़ी काकी बोली,‘‘बहती धारा को न तुम रोक सकते, न मैं। मन में जब भावनाओं की उथलपुथल होती है तो इसका असर हृदय पर होता है। हम खुद को रोक नहीं पाते और बह जाते हैं। ऐसा करने से दुख कम हो जाता है। इसलिए हम कह देते हैं कि थोड़ा रो लिए, मन हल्का हो गया। मन की वेदना ने आंसुओं की शक्ल ली और टपक पड़ी।’’

‘‘अक्सर गुस्सा हम उन्हीं पर करते हैं जिनसे हमारा लगाव भावनात्मक होता है। यह शायद अथाह घनिष्ठता का परिचय देता है। लगाव इंसानी रिश्तों को एक मायना देता है- जुड़कर चलने का, साथ निभाने, कभी न दूर जाने का और एक-दूसरे को बारीकी से समझने का।’’

‘‘लगाव की कोई सीमा नहीं होती। रिश्ते इंसान से जुड़कर चलते हैं। जबकि हम कई बार रिश्तों के कई अजीब तरह की भावनाओं में उलझकर रह जाते हैं। जब कहीं टूटन या दीवार के ढहने की आहट होती है, तो हम चौंक जाते हैं। हमें लगता है कहीं इससे सबकुछ बिखर न जाए। उस आने वाले भय की घबराहट हमें सोचने को विवश करती है। हम भावनाओं में सिमट जाते हैं।’’

‘‘मैं किसी से इतना मोह नहीं रखती क्योंकि मुझे जीने की उतनी इच्छा नहीं रही। ऐसा मैं अनेक बार सोचती हूं। मेरी उम्र काफी हो चली, इसलिए भी मैं आशान्वित नहीं। मगर यह कम होता है जब मैं निराशा से खुद को बचा पाती हूं। जब मैं अधिक निराश हो जाता हूं, मेरी आंखें नम हो जाती हैं।’’

‘मेरी मां कहा करती थी कि आंसू अनमोल हैं, इन्हें यूं जाया मत करो। वक्त आने पर इनकी कीमत मालूम होगी। वैसे जब भी मन को भरा पाया, मैंने आंसू बहा दिये। हृदय की वेदना बाहर आ गयी। मां ने यह भी कहा-‘जो बात छिपी हो किसी कोने में, दर्द बढ़ा हो कहीं, उसे बाहर लाना हो अगर, तो थोड़ा रो लो। शायद तसल्ली मिल जाए, मन हल्का हो जाए।’’