सूखी भी, गीली हैं आंखें





‘खुशियां सिमट जाती हैं। जिंदगी एक खाली कटोरा लगती है। दौड़ती थी जो चीज कभी, आज रुकी सी लगती है। ऐसा लगता है जैसे कुछ थम सा गया है। बदला है, तब से अबतक बहुत कुछ बदला है। बदली है मेरी जिंदगी, बदली है हंसी। और बदल चुकी हूं मैं। मैं पहले जैसी नहीं रही, मगर मैं खुश हूं। संतुष्टि एक अलग एहसास कराती है। हमें जीने का सलीखा सिखाती है।’ इतना कहकर काकी ने पलकों में पुतलियों को छिपा लिया। कुछ क्षण वह मौन साध गयी। मैं उसके चेहरे पर बनती-बिगड़ती बनावट को गंभीरता से देखता रहा।

वृद्धों के चेहरे सिलवटों से भावनाओं को व्यक्त कर देते हैं। एक-एक लकीर अपनी कहानी कहती है- जरा गौर से पढ़िए या उनमें खुद को डुबोकर देखिए। हमें मालूम लग जाएगा कि बुढ़ापा क्या-क्या समेटे है।

आंखें खोलकर काकी ने मेरी तरफ देखा। मुझे बूढ़ी काकी की बूढ़ी आंखें ऐसी लगीं जैसे कुछ कहना चाह रही हों। उनमें एक संसार बसता है जो निराला बिल्कुल नहीं। एक ऐसा धुंधला संसार जो कोहरे से ढका बिल्कुल नहीं। जहां हरियाली है जरुर, पर सूखे पत्तों में कहीं छिप गयी है। माहौल उजाले भरा है, लेकिन घने अंधेरे ने कहीं से दस्तक जो दे दी है। सब जगह सूखी मिट्टी के टीले हैं। उनमें कहीं-कहीं उम्मीदों के छींटे पड़े हैं। ऐसा लगता है जैसे बहार आते-आते रुक गयी। बीच का काला बिन्दु गहरा होता जा रहा है। आसपास के इलाके को भी धुंधला करने की कोशिश की है। कहीं कोई चूक तो नहीं हुई, मालूम नहीं। सूखी नदियां इसी रास्ते बहती हैं। भावनाएं उमड़ कर बाहर तरल अवस्था धारण करती हैं। मन का बोझ हल्का हो जाता है। एक गहराई लिये लोक जिसमें झांकना मुमकिन है, लेकिन उसे नापा नहीं जा सकता। अथाह, विचित्र, नवेला, अनगिनत रहस्यों को छिपाये हुए। सफेदी पर उम्र ने परत चढ़ा दी है जिसका छुटना मुश्किल है। उजलेपन को फीका कर दिया है। मैं फिर भी उनमें छिपा उजाला ढूंढ़ने की कोशिश कर रहा हूं। काकी का जीवन के प्रति नजरिया जो भी रहो हो, मैं उसकी आंखों को पढ़ने की असफल कोशिश करता रहा।

इंसान को वक्त ही कहां मिलता है कि वह चीजों की गहराई को जान सके। आंखों से आंखों को पढ़ने के लिए पूरा जीवन न कहीं बीत जाए। बीत न जाए वह सब जिसने जीवन को जीना सिखाया।

बूढ़ी काकी का मौन टूटा, वह बोली,‘बुढ़ापा खाली बैठने वाला नहीं। अनगिनत ख्वाहिशें विचरती हैं। कौन कहता है ये आंखें खामोश हैं? इनमें इतना कुछ समाया है कि खोज कभी खत्म ही न हो। शायद अब भी किसी को खोजती हैं। पलकें खुलती हैं, बंद हो जाती हैं। इंसान जागता है, सो जाता है। आधी-अधूरी इच्छायें पूर्ण करने की जद्दोजहद होती है। संसार को क्या दिया, कितना लिया। सब कुछ देखती हैं आंखें। सुख होने पर खुशी से भर जाती हैं। दर्द होने पर कराह उठती हैं आंखें। नाजुक हैं, फिर भी कितना कुछ सह जाती हैं आंखें। अनमोल हैं किसी के लिए कोई, और उनसे भी कीमती हैं उसकी आंखें। न कहते हुए भी बहुत कुछ कह जाती हैं। जो हम जुबान से नहीं कह पाते, वह निगाहें कह जाती हैं। चुप हैं आंखें, मगर कितना बोल जाती हैं। यहां शब्दों की गुंजाइश नहीं रह जाती, बल्कि हर कोई बात बिखर जाती है ताकि उसे समझा जा सके। कभी क्रोध को, तो कभी प्रेम को व्यक्त करती हैं आंखें। मेरे हिसाब से इनके जितना बेमिसाल कोई अंग नहीं। अजब-गजब का दर्शन कराती हैं। निरालापन-अलबेलापन समझाती हैं। इंसान को इंसान से मिलाती हैं। यह संसार सुन्दर है, हमने इसके रुप को अपनी आंखों से निहारा है।’’

नयनों की भाषा कमाल की है।

‘नयन नयन से मिलकर विचित्र संयोग बना रहे,
कहीं मधुर, कहीं कड़वा योग बना रहे।’

बूढ़ी काकी की यह उक्ति आंखों की भाषा के बारे में बताती है।

-harminder singh