बुढ़ापे को आलसी मत कहो

सुबह मेरी दौड़ थोड़ी थकाने वाली थी। जूतों के लेस आज ढीले पड़ गये थे, कुछ कदमों पर ही खुल जाते। बांधता, फिर खुल जाते। तभी बूढ़े काका आते दिखायी दिये। मुझसे पूछा- ‘‘फीते कसने नहीं आते, और इतने बड़े हो गए?’’

मैंने उनके चेहरे की तरफ देखा। काका की मजाक करने की आदत से मैं वाकिफ था।

जबाव में मैं बोला- ‘‘मां को टाइम कहां है काका। आप ही सिखा दो।’’

इस बार काका ने मेरी ओर देखा, बोले- ‘‘भई वाह! 80 साल के बुजुर्ग से यह काम करवाओगे। चम्मच में दो बूंद पानी भरो और कूद जाओ।’’

मैंने कहा- ‘‘पानी भरने के लिए भी पता है आपको कितनी मशक्कत करनी होगी। यह गंगा का किनारा नहीं जो हाथ से खोदकर जल के दर्शन हो जायेंगे। पक्की सड़क है डामर की।’’

इसपर काका ने अपना बेंत मेरी पीठ पर हल्का-सा छुआ दिया। बोले- ‘‘बेटा देख मुझे बूढ़ा होकर भी तना हूं और तुम फीते बांधने का बहाना बना रहे हो। तुम्हारी उम्र में मैं गांव के कच्चे रास्ते में नंगे पैर दौड़ लगाता था।’’

लेस बंध चुकी थी। मैं खड़ा हो बोला- ‘‘काका आप का जमाना अलग था। तब हर काम ‘स्लो’ था। आलसीपने में जूते पहनना कौन चाहेगा।’’ मैं हल्का मुस्कराया।

काका भी मुस्करा दिये। हम साथ-साथ चलने लगे।

काका बोले- ‘‘बुढ़ापे को आलसी मत कहो।’’

मैंने कहा- ‘‘काका बुढ़ापा नहीं, तब आप आलस के मारे थे।’’

‘‘बेटा, मैं तब भी दिनभर ‘विजी’ रहता था। गाय-भैंस को सानी करना(चारा-चोकर खिलाना), उन्हें नहलवाना, चारा काटकर लाना, पढ़ाई करना, खेत में पिताजी का हाथ बंटाना। इतना करने वाला आलसी, .....तो बेटा तुम क्या हुए? तुम्हारे तो मामूली टहल में ही पसीने छूट गए, फीते खुल गए।’’ काका की बात सौ आने सही थी।

बूढ़े काका ने आगे कहा- ‘‘जानते हो, काम करने की कोई उम्र नहीं होती। और खाली बैठकर किसको क्या मिला? मैं तो एक बात कहता हूं,‘विजी रहो, मस्त रहो।’ इसलिए सुबह टहलता हूं। कितने लोग मिलते हैं। मन हरा हो जाता है। वे मुस्कराते हैं, मैं भी। कितना सुखद एहसास होता है वह। बुढ़ापे में जीकर पता लगता है कि एक कतरा मुस्कान का मायना क्या होता है? इसलिए मैं फिर कहता हूं :

‘‘हर पल यहां खुलकर जिओ,
क्या पता कल हो न हो।’’

-harminder singh