‘वक्त आज ठहरा सा लगता है। रुक सा गया है कुछ।’ बूढ़ी काकी ने मुझसे कहा।
‘मुझे लगता है मैं पीछे छूट गयी। मैं रुक कर किसे खोज रही हूं? मुझे सब नजर आ रहा है, धुंधला ही सही।’
काकी ने अपनी बूढ़ी हो चुकी आंखों को धीमे से बंद किया। विराम अल्प समय का था।
मैं सोचने लगा कि बुढ़ापे में कितना कुछ छूट जाता है। कितना हमने पाया, कितना खोया अबतक जीवन में उसका मंथन उम्र के अंतिम पड़ाव पर किया जाता है या ऐसा स्वत: ही हो जाता है।
क्यों कांपते हाथ और लड़खड़ाती टांगे स्वयं से इतने प्रश्न पूछ लेते हैं? क्यों जीवन ठहर कर भी निरंतर चलता है? क्यों जिंदगी धीमी लगने लगती है? क्यों जीवन की मिठास सूखी सी लगती है? क्यों एक बूढ़ा इंसान खुद से इतनी बातें करने लग जाता है? क्यों लोग ऐसे लोगों को पागल कहते हैं?
काकी ने गहरी सांस ली, फिर बोली,‘जब चीजें सिकुड़ती हैं, तब जीवन का असली ज्ञान होता है। तब हम खुद में उलझते दिखाई देते हैं। यह लड़ाई इंसान की होती है जिसके दोनों छोर पर वही खड़ा होता है। जय-पराजय का धुंधलापन उसे स्वीकार करना पड़ता है। नाव किनारे करने का वक्त आ गया होता है। कईयों की नाव बेवजह बह जाती है। खुद को ठगा महसूस करने के सिवा कोई चारा नहीं रह जाता।’
‘सच्चाई छिप नहीं सकती। बुढ़ापे की चादर मखमली नहीं होती। खुरदरापन उसमें समाया है। मिठास खत्म होने के बाद स्वाद फीका-फीका लगता है।’
‘इंसान खुद से कहता है-‘हां, झुर्रियों से समझौता करना मैंने सीख लिया। जर्जरता में जीना मैंने सीख लिया। खुश नहीं, फिर भी खुश हूं।’ इस उम्र इससे बचा नहीं जा सकता।’
काकी गंभीर थी। उसका शुष्क चेहरा खिड़की से आ रही रोशनी में भीग रहा था। सफेद रुखे बालों की परत में चमक थी, मगर थकान लिए।
झुर्रियों में लिपटा बुढ़ापा चुप था। फीके जीवन को तसल्ली दी जा रही थी। बुढ़ापा कमजोर आंखों से दौड़ते वक्त को निहार रहा था। शुष्क होठों पर हल्की मुस्कान थी। आखिर झुर्रियों से समझौता करना उसने सीख लिया था।
-harminder singh