झगड़ा बली व निर्बल का है स्त्री पुरुष का नहीं

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जब—जब नारी उत्पीड़न अथवा पुरुषों द्वारा स्त्रियों के साथ भेदभाव की घटनायें प्रकाश में आती हैं तो हमारे समाज में इन घटनाओं के खिलाफ अब काफी मुखरता से आवाज उठती है। इसे सामाजिक जागरण का प्रमाण माना जाता है। ऐसे में केवल नारियां ही नहीं बल्कि पुरुष उनसे अधिक संख्या में भेदभाव या उत्पीड़न की शिकार महिला का पक्ष लेते हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि समाज में लैंगिक भेदभाव को पुरुष समाज समर्थन नहीं देता जबकि इस तरह की घटनायें होने पर पूरे पुरुष समाज पर उंगली उठाई जाती है तथा कई जागरुक महिलायें अनायास ही पुरुष प्रधान सामाजिक तानेबाने को ही दोषी ठहराती हैं। वास्तव में दुनिया में आदिकाल से आजतक शक्तिशाली और कमजोर का संघर्ष चला आ रहा है। अधिकांश मामलों में हर जगह ताकतवर कमजोर को दबाने का प्रयास करता देखा जा रहा है।

कई स्थानों पर देखने में आया है कि जो महिलायें शक्तिशाली हैं उनमें से कई अपने से कमजोर पुरुष पर दबाव बनाती है। ताकत भी कई तरह की होती हैं, धन, जन, शारीरिक, पद या सत्ता की शक्तियों का दुरुपयोग करने वालों की कमी हमारे यहां नहीं है। शहर या गांव के बड़े नेता के घर की महिलायें भी कमजोर या निर्धन घरों के पुरुषों पर हावी रहती हैं। ऐसे में दूसरे पुरुष उनसे आयु में या शिक्षा आदि में बड़े होने के बावजूद उन महिलाओं को सम्मान देते हैं तथा उनके दबाव तक में जीवन जीते देखे गये हैं।

धनवान घर की महिला के सामने गरीब घर के पुरुष का कोई महत्व नहीं। जहां किसी जाति विशेष का दबदबा कहीं होता है उस क्षेत्र में दूसरे वर्ग की महिला हो या पुरुष, सभी दोयम दर्जे के नागरिक होते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में तो एक बेहद अभद्र कहावत है। इसे हाल ही में हमारे देश के सम्मानित शंकराचार्य ने भी दोहराया था कि ’गरीब की बहू सबकी भौजी।’ यानि अमीर की स्त्री और गरीब की स्त्री में अंतर है। स्त्री या पुरुष का सवाल नहीं।

हमारे यहां स्त्री—पुरुष में ऊंच—नीच के सवाल के बजाय असमानता का सवाल है जो पुरुष—पुरुष और महिला—महिला के बीच भी मौजूद है। कई परिवारों में महिलाओं का पुरुषों को आदेश मानना पड़ता है। बल्कि कई महिलायें ऐसी देखी गयीं जिनका लोहा पूरा गांव मानता था और आज भी मानता है। जो मजबूत है और जिसके पास शक्ति है वह अन्याय का शिकार नहीं होता बल्कि वह दबाव बनाने का प्रयास करता है। न्याय के दरवाजे पर भी मजबूत दंडित होने से बच जाता है। यदि उसका प्रतिद्वंदी उससे कमजोर हो। उसमें भी स्त्री—पुरुष का सवाल नहीं होता।

फिल्मी अभिनेता संजय दत्त सजा के बावजूद बार—बार जेल से छुट्टी ले लेता है जबकि दूसरे कई साधारण लोग सजा पूरी होने के बाद भी जेलों में सड़ रहे हैं। यहां भी ताकत के आधार पर फैसला हो रहा है। संजय दत्त के पास फिल्मी ताकत है। राजनीतिक ताकत है और धन की भी ताकत है। इसी तरह सलमान खान का मामला है। अपराध सिद्ध होने के बावजूद काले हिरण और फुटपाथ पर सोये लोगों को मारने वाले इस दबंग अभिनेता की दबंगई तथा धन बल के कारण दशकों से चल रहे मुकदमे का पटाक्षेप ही नहीं हो रहा। धीरे—धीरे आरोपी मरते जायेंगे या थक जायेंगे और मामला साफ हो जायेगा। हां यदि सलमान के खिलाफ केस को सलमान से ताकतवर पीड़ित लड़ते तो सलमान जेल जा भी सकते थे। लेकिन सवाल फिर वहीं ठहरता है कि अपने से कमजोर पर ही तो दबंगई दिखाई जा सकती है। ताकतवर से उलझकर आखिर सलमान क्या लेते? मरने वाला हिरन और फुटपाथ पर मरे गरीब, दोनों ही हर तरह से अभिनेता से बेहद कमजोर थे। यदि सलमान पुरुष के बजाय महिला होते तब भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।

कुल मिलाकर स्त्री—पुरुष की कोई लड़ाई नहीं, बल्कि वे एक—दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे के बिना उनका अस्तित्व ही नहीं हो सकता। झगड़ा शक्तिशाली और निशक्त में है।

लोकतंत्र में संख्या बल सबसे बड़ा बल है। जबकि जंगल में अकेला सिंह भी बहुसंख्यकों पर राज करता है। बात यहां भी निर्बल और सबल की है। नर—मादा ताकत का पैमाना नहीं।

-जी.एस. चाहल.