एक कैदी की डायरी -17

सादाब का चेहरा क्रोध से भर गया। दिल के जख्मों को फिर से कुरेदने पर दर्द बहुत होता है। उसकी चीखें गहरी बहुत होती हैं। इतनी गहरी कि पूरा शरीर थर्रा उठता है। सादाब ने अपने माथे को दोनों हाथों से पकड़ लिया और चेहरा नीचे झुका दिया। उसके घाव हरे हो गये थे।

वह चेहरे पर अजीब भाव लिये था। उसके आंसू तेजी से बहने लगे थे। अब वह रो रहा था। मैंने उसे सांत्वना देनी चाही, लेकिन उसने मेरा हाथ पीछे कर दिया। आंखें झुकी थीं, पलकें भीग चुकी थीं और उसके सुबकने की हल्की आवाज आती थी। कमीज की आस्तीन से वह बार-बार बहते पानी को पोंछता जाता। कमीज का वह हिस्सा काफी गीला हो चुका था। उसके चेहरे के साथ-साथ उसकी आंखें लाल हो गयी थीं। उसका दर्द बह कर बाहर बिखर गया था।

भगवान ने आंसू इसलिए ही बनाएं हैं ताकि हम अंदर-अंदर घुटे नहीं, ज्यादा व्यथा होने पर पिघलकर बाहर आ जाए। ईश्वर का शुक्रिया इसके लिए भी करना चाहिए। भारी मन को हल्का आंसुओं का बहना कर सकता है। पर उनका क्या जिनकी आंखों में नमीं ही न बची हो?

अंदर से तो मैं भी घुट रहा हूं। आंतरिक पीड़ा के ऐसे कितने अवसर आए होंगे जब मैं फूट-फूट कर रोया हूं। मानता हूं आंसू पीड़ा को क्षीण बिल्कुल नहीं करते, कम जरुर कर देते हैं। लेकिन बात तब हो जब पीड़ा खत्म ही हो जाए।

दुख के खात्मे के बाद सुख का कोई मतलब नहीं रहेगा। जहां सुख है, वहां दुख है। ये दोनों एक दूसरे के विपरीत होते हुए भी मिलकर चलते हैं। अंधेरा और उजाला एक दूसरे के बिना महत्वहीन हैं। उजाले की मुस्कराहट अंधकार को सिमटने पर विवश करती है।

मैं एक आम इंसान हूं जो सुख-दुख के पाटों के बीच पिस रहा है। खैर, जिंदगी में सुख क्षत-विक्षित हो गायब हो गया है। अब चारों और गिद्धों सी उदासी मंडराती है। मैं चुपचाप उसे देखता रहता हूं और कर भी क्या सकता हूं?

इंसान कमजोर होने पर दुबला लगने लगता है। उसकी ताकत कम होने लगती है। जब कष्टों का सैलाब भावनाओं से मिलकर बनता है तो शरीर की स्थिति अलग हो जाती है। बातों में वह ताजगी और रोचकता नहीं रह जाती। विचारों की मौत का सिलसिला शुरु होने लगता है। प्रारंभ में काफी उथलपुथल का दौर रहता है। मध्य में हालात बिगड़ जाते हैं और बाद में विचार शून्य समान हो जाते हैं।

सादाब से मैंने कहा,‘जिंदगी को शायद यही मंजूर था कि वह एक बसी-बसाई दुनिया को पल भर में उजाड़ दे।’

वास्तव में हम ऐसे मौकों पर कुछ कर नहीं सकते। करने की क्षमता का ह्रास हो चुका होता है।

सादाब बोला,‘वक्त की मार से कुछ भी हो सकता है। हमारे मामा की इकलौती बहन हमारी अम्मी उससे मिलना चाहती थी। मामा सही आदमी नहीं था। उसकी मोहल्ले में रोज मारपीट होती थी। उसने कई बार चोरी की तथा रंगें हाथों पकड़ा जा चुका था। हराम का माल खाने की जैसे उसे आदत पड़ गयी थी। मोहल्ले के लोग कहते थे कि उसने अपनी पत्नि जेबा को जलाकर मार दिया था। जेबा के परिवार वाले काफी गरीब थे, इसलिए उसकी दो बच्चियों की खातिर उसके खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट नहीं की। उनका कहना था कि बाप उनसे अच्छी तरह बच्चियों की देखभाल कर लेगा। मामा पूरा ढोंगी था। वह जेबा के घरवालों के सामने गिड़गिड़ाया और बोला कि वह दोनों लड़कियों को जान से ज्यादा मोहब्बत करेगा। जेबा को उसने बताया कि खाना बनाते समय खौलते तेल की कड़ाही उसके ऊपर गिर गई, जबकि वह जमीन पर रखे ईंटों के चूल्हे पर रोटी बनाती थी। शिकायत के लिए सबूत चाहिए था। मोहल्ले वालों को कोई मतलब न था। एक औरत ही तो मरी थी। बच्चे बाहर खेल रहे थे और घर में मामा जेबा से उसकी जिंदगी छीन रहा था। कारण क्या था यह मुझे आजतक पता नहीं चल सका। जेबा कुछ पल के लिए छटपटाई होगी। फिर उसकी सांसों को विराम लग गया होगा। अक्सर मौत से पहले जिंदगी इसी तरह छटपटाती है। मेरा खून खौल जाता है यह सब कहकर, लेकिन मैं कहता हूं। अभी तक मैं चुप रहा, सोता रहा। चुप्पी कब तक मेहमानों की तरह रहती, उसे टूटना था। तुमने पूरी हकीकत अभी जानी कहां है? मामा का असली रंग अभी बाकी था। अपनी मौत का कारण वह खुद था। इंसान शायद अपनी मौत का रास्ता खुद चुनता है, वह भी इंसान ही था जो हैवान से कम नहीं था। उसकी मौत न होती तो वह न जाने और क्या करता?’

सादाब को काफी गुस्सा आ गया था। उससे मैंने कहा कि अब उसे आराम करना चाहिए। उसकी कहानी तसल्ली से किसी दिन सुन लेंगे।

पता नहीं क्यों वह जैसे मुझे सबकुछ बताना चाह रहा था। उसने आगे बताना शुरु किया,‘‘मामा की छोटी बेटी शायना मुश्किल से छह साल की थी और बड़ी फरीदा नौ की। वह रात को देर से आता था। घर में जुआ खेलता। कई लोगों को साथ लाता। बेटियों से उनके लिए चाय-पानी मंगवाता और रात का खाना बनवाता। कहा न मानने पर उनके सामने ही बाल पकड़कर अपनी बेटियों को बेरहमी से पीटता। बच्चियां थीं, मासूम थीं, अंजान भी, इसलिए बाप की मर्जी को बेचारी आंसू पोंछते-पोंछते मान लेतीं। एक कसाई से कम नहीं था हमारा मामा।’’

‘‘शायना और फरीदा ने कभी मेरी अम्मी से यह नहीं बताया। अम्मी को अपने सगे भाई की असलियत पता नहीं थी। एक रोज मामा शाम को हमारे घर रोता हुआ आया। उसने कहा कि शायना का सुबह से पता नहीं चला। सारा मोहल्ला छान मारा वह मिली नहीं। इसपर अम्मी परेशान हो गयी। लड़कियों की उन्हें बहुत फिक्र रहती थी।

शायना फिर कभी नहीं लौटी। मालूम पड़ा कि मामा ने उसे जुए में दांव पर लगाया था। दांव हार जाने पर शायना को उस खूसट जमील को सौंप दिया। जमील उस रात मामा के यहां से नागपुर जा रहा था जहां वह जूते बनाने की एक कंपनी में काम करता था। वहां शायना का क्या हुआ होगा मुझे पता नहीं। लेकिन मामा अच्छा नहीं कर रहा था। अब उसकी नियत यह थी कि किसी तरह फरीदा से भी छुटकारा पा ले।’’

‘‘वह फरीदा को मेला दिखाने ले गया। फरीदा अंजान थी। मेला एक बहाना था। फरीदा का कुछ हजार में पहले ही सौदा किया जा चुका था। सौदेबाज तैयार थे। भीड़ में फरीदा का हाथ छूट गया। उसे किसी ओर ने थामा। कुछ पलों में फरीदा की जिंदगी का फैसला हो चुका था। उसकी दुनिया उजड़ चुकी थी। वह बिक चुकी थी। और ऐसे लोगों के हाथ में थी जिनके लिए वह केवल मांस का लोथड़ा भर थी, कोई मामूली खरीदी हुई वस्तु जिसकी कीमत चुकायी जा चुकी थी।’’

सादाब का दर्द और गहरा होता जा रहा था। मैं उसकी पीड़ा समझ सकता था। एक व्यक्ति कितना गिर सकता है, मैंने सोचा नहीं था। कितना दुख होता है जब कोई आपका अपना आप पर भरोसा करे और अपने स्वार्थ के लिए आप उसे ऐसे लोगों के हवाले कर दें जो जिंदगियों का सौदा करते हैं। उनके यहां मरी हुई आत्माओं का बाजार सजता है जिनके खरीददार होते हैं। छी है ऐसे इंसानों पर जिनके लिए इंसान मंडी की सजावट से अधिक कुछ नहीं। मैं इसके आगे इसपर लिखना नहीं चाहूंगा।

लोगों की चमड़ी एक सी होती है, फर्क रंग का होता है। लोग एक से होते हैं, यहां भी फर्क रंग का होता है। रंग बदलते देर नहीं लगती। गिरगिट को ही देख लें। जिस जगह बैठा, वैसा उसका रंग हो जाता है।

इंसानों की कला जानवरों से कई गुना शक्तिशाली और अनोखी है। वह जितनी अजीब है, उतनी भयानक भी।

सादाब ने बताया कि उसका मामा अम्मी के सामने फूट-फूटकर रोया। मेले की झूठी कहानी गढ़ दी। उसकी अम्मी को मामा पर यकीन आ जाता था।

-to be contd....


-Harminder Singh