दो उम्रदराज महिलायें अपने-अपने झोले के साथ बेंच पर बैठी थीं। उनके कपड़ों की तरह ही उनका कपड़े से बना झोला भी मैलाही था, लेकिन उनकी बेफिक्री बताती थी कि इससे उन्हें कोई फर्क नहीं है |
पांच बजे घर से बाहर कदम रखा। शर्मा जी का बेटा मोनू भी तभी सुबह अपनी नियमित दौड़ के लिए निकला था। वह काफी सीरीयस लग रहा था।
सड़क से लगभग पौने किलोमीटर की दूरी पर रेलवे स्टेशन है। जो बैग मैंने थाम रखा था, वह वजनी होता जा रहा था। थोड़ी-थोड़ी देर में मुझे हाथ बदलने पड़ रहे थे। ऐसा करना जायज था क्योंकि मेरे हाथ लाल हो चुके थे। मां ने कई सामान यूं ही बैग में भरवा दिये कि सफर के दौरान कब जरुरत पड़ जाए।
इंदिरा चौक पहुंचकर एक भी रिक्शावाला नहीं दिखा। शायद गेहूं की कटाई में व्यस्त होंगे। वैसे भी तब अप्रैल का मध्य था। वैसे भी सवारियां धूप चढ़ने के वक्त ही अधिक मिलती हैं।
मैंने सोचा कि चलो इसी बहाने अपने हाथों की एक्सरसाइज भी हो जायेगी।
बंदरों की कारस्तानियों पर मेरी नजर थी। बंदरों के तीन-चार बच्चे एक-दूसरे के पीछे दौड़ रहे थे। मेरे जैसे कई लोग उनकी हरकतों को देखकर समय काट रहे थे। कमाल था ट्रेन का समय नहीं हुआ था जबकि मैं शायद जल्दबाजी में इसीलिए ही भागा था कि कहीं रेलगाड़ी छूट न जाये।
दो उम्रदराज महिलायें अपने-अपने झोले के साथ बेंच पर बैठी थीं। उनके कपड़ों की तरह ही उनका कपड़े से बना झोला भी मैला ही था, लेकिन उनकी बेफिक्री बताती थी कि इससे उन्हें कोई फर्क नहीं है। उनका एक अपना तालमेल था।
बालों की सफेदी बता रही थी कि वे यही कोई 60 से ऊपर और 70 से कम की होंगी। बतियाने की कला में महारथ हासिल थी क्योंकि जब से आयी थीं, उनका जबड़ा हरकत कर रहा था। मामूली पीलापन लिए इंसानी दांत कभी कम, कभी पूरे दिख जाते। उनकी आंखों में धुंधलापन जरुर था, लेकिन चश्मे नहीं चढ़े थे। चेहरे पर अनगिनत खामोश लकीरें फैली थीं, जो गहराई लिए थीं। शायद इसलिए कि महिलायें आज नहाई न हों।
उनमें से एक वृद्धा को मैं विश्वास से कह सकता हूं कि वह कभी काफी खूबसूरत रही होगी। उसका चेहरा पुराना जरुर हो गया था लेकिन वह सुन्दर था। नाक पर जो आभूषण वह संभाले थी, उसकी चमक फीकी नहीं पड़ी थी। जबकि उसके कान में लटका कुंडल अपनी आभा खो चुका था।
अचानक एक बंदर मेरे सामने से चीखता हुआ दौड़ा। कुछ और उसके ग्रुप के सदस्य उसके साथ थे। मैं उनकी उछलकूद देखने में व्यस्त हो गया।
जारी है....
-harminder singh