एक कैदी की डायरी -4



कभी-कभी मैं अपनों को भूल जाता हूं। इतना कि मुझे लगता है कि अब उनकी याद कभी नहीं सतायेगी। अजीब-सी प्रसन्नता का अहसास होता है। उसका मतलब क्या होता है? मैं नहीं जानता। दूसरों को, जो हमारे इतने करीब रहे हों, एक झटके में उनसे आंखें बचा लेना कई बार उलझन में पड़ने को विवश कर देता है। दुख और पीड़ा से बच निकलने का यह रास्ता मन को थोड़े पलों के लिए असीमित बोझ से जरुर बचा लेता है। मुझे खुद पर हंसी भी आती है। क्यों मैं स्वयं से जूझ रहा हूं या वक्त मेरे साथ खिलवाड़ कर रहा है?

अभी कुछ ही दिन हुए जेलर साहब ने मुझसे कहा था कि मेरी सजा कम करवाने की वे आगे सिफारिश करेंगे। उनका व्यवहार मेरे प्रति शुरु से ही अच्छा रहा है। उनका व्यक्तित्व एक बेहतर इंसान का लगा। उन्होंने मेरी वास्तविकता को जाना तथा समझा। ऐसा हर इंसान नहीं कर सकता, लेकिन उन्होंने किया। उनकी बातों से मुझमें फिर से आशा जगी है। मुझे उम्मीद है कि जल्द ही सबकुछ ठीक होगा। हम उम्मीद ही तो लगा सकते हैं और भगवान से दुआ मांग सकते हैं। ऐसा करने से हम अपनी घबराहट को कम कर सकते हैं। मेरी मानिए ऐसा होता है। भरोसा हमें तोड़ता नहीं, जोड़े रखता है।

मैं अब उतना हताश नहीं, लेकिन काश, कशमकश का कुछ कर पाता। खैर, उम्मीद जगी है तो आने वाले दिन आसान हो सकते हैं। वैसे, हमें उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। हम किसी से उम्मीद इसलिए लगाते हैं ताकि वह टूटे नहीं। उम्मीद कांच की तरह भी होती है। जब टूटती है, तो अक्सर बिखर जाया करती है और तब कष्ट बहुत होता है। कुछ लोग उम्मीदों के टुकड़ों को जोड़ना जानते हैं। ये वे होते हैं जो कभी हारते नहीं। मैं न हारने के लिए अपने आप को समझा रहा हूं। मोह ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। यादों का क्या करुं मैं? क्या करुं?

-harminder singh