एक कैदी की डायरी -40

jail diary, kaidi ki diary, vradhgram, harminder singh, gajraulaसुबह जब मैं उठा तो लगा कि शायद आज का दिन काफी बेहतर जाने वाला है। कई बार जैसा हम सोचते हैं, वैसा होता नहीं। कई बार इसका उलट भी हो जाता है। दिन की शुरुआत बेहतर करने की कोशिशें बहुत से लोग करते हैं। मेरे लिए सब सुबह एक-सी हैं और शामें वही तन्हा, बिल्कुल अकेली। कोई जो नहीं है मेरे पास। इस समय अलग तरह की भावनाओं को मैं अपने आसपास मंडराता पा रहा हूं।

जेलों में कैदियों के हालातों पर एक सज्जन पुस्तक लिख रहे हैं। उन्होंने मुझसे काफी देर बात की। जेलर को यह खर गया। उसका मकसद कैदियों को जितना परेशान किया जा सके करना है।

शाम का खाना मुझे नहीं दिया गया। गुस्से में भूख नहीं लगती। जेलर की जलन महिलाओं की तरह है। इर्ष्या द्वेष को जन्म देती है। जेलर यह मानता है कि कैदी का जीवन बिना मोल का होता है। लेकिन मैं मानता हूं कि कोई खुद कैसे खुद हो सकता है। कुछ लोग पता नहीं क्यों दुनिया को अपने तले समझते हैं, जबकि वे खुद भी अच्छी तरह जानते हैं कि लोगों के सिर पर आप कब तक बैठ सकते हैं।

बुढ़ापा जीवन का असली ज्ञान करा देता है। तब शायद बीती बातें याद आती हैं, इसके सिवा कुछ नहीं। तो जेलर को बुढ़ापे तक इंतजार करना होगा। तो वह उम्र के अंतिम पड़ाव पर अपने कर्मों का फल भुगतेगा। पर तब तक तो वह अत्याचारों का पूरा गट्टठर इक्टठा कर चुका होगा।

बीच-बीच में स्मृतियां इठलाने लगती हैं। उन्हें उकेरने का मन करता है। लाजो मेरे साथ बचपन में खूब खेली है। नानी के गांव का स्कूल काफी पुरानी एक-मंजिली इमारत था। लाजो घर आ जाती। हम साथ-साथ झोले में तख्ती लेकर स्कूल के लिए निकल जाते। गांव से स्कूल कोई तीन किलोमीटर की दूरी पर था। रास्ता कच्चा था, धूल उड़कर आंखों में बस जाती। स्कूल के नल पर आखें मलनी पड़तीं। हम दोनों ऐसा ही करते।

रास्ते में बाग पड़ता। लाजो को आम अच्छे लगते थे। छुट्टी के वक्त मैं चुपके से आम तोड़ लाया करता।

लाजो कहती,‘किसी ने देखा नहीं?’

मेरा जबाव होता,‘भला ऐसा कैसे हो सकता है? तुम्हारे लिए ये कुछ भी नहीं।’

वह हल्का मुस्कराती और मेरे हाथों से आम छीन लेती। घर तक हम मजेदार आमों को चखते आते। हमारे हाथ और मुंह अलग किस्म के हो जाते।

वह दिन आज याद करता हूं तो बहुत सुकून मिलता है। वैसे हम पुराने लम्हों को भूलना नहीं चाहते क्योंकि हमें उनसे ताकत मिलती है। हम उनसे बहुत कुछ सीखते भी हैं। मैंने हर उस चीज से सीखा है जो मेरे आसपास से भी गुजरी। मैं चुप रहा तब भी सीखता रहा, दिमाग अपना काम जारी रखता है। आसमान खाली था, नीला भी; तारे दिन में नहीं चमकते लेकिन मैंने खुले आसमान में तारों को गिनने की कोशिश की। यह कल्पना थी, एक कोरी कल्पना जो कुछ भी साकार कर सकती थी। फर्क सिर्फ इतना था कि सफर का हमेशा एक छोर होता है और समय का अंत। कल्पनाशक्ति महान है, परंतु रात का साफ आकाश टिमटिमाहट के लिए काफी है।

जारी है...

-Harminder Singh






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