उस दिन मैंने काका से कहा कि आजकल जमाना बड़ा ही फैशन वाला हो गया है। मैंने फटी जींस की बात छेड़ दी।
इसपर काका पहले मुस्कराये, दोबारा ठहाका लगाया फिर बोले,‘इससे तो हमारा जमाना ही अच्छा था। कम से कम कपड़ों पर थेगली या जोड़ लगा लेते। अब तो थेगली लगाना पागलपन कहलायेगा।’
काका ने सही कहा। उधड़े हुये या फटे हुए को सिलना बेकार है। जितना कम कपड़ा उतना फैशनेबल आप। तभी तो शहरों की फुटपाथ चलते-फिरते रैंप से कम नहीं।
बूढ़े काका को मैंने बताया कि मेरी हाल ही में एक व्यक्ति से मुलाकात हुई। उसकी जींस कई जगह से फटी हुई थी। मुझे लगता है कि उसने ऐसे ही पहन ली, बिना कोई गौर किये। वैसे वह व्यवहारिक इंसान है। उसकी शख्सियत किसी को भी प्रभावित कर सकती है। दिल से कुछ ज्यादा ही सोचता है वह। अपनी कम दूसरों की कुछ ज्यादा ही फिक्र उसे रहती है। देखा जाये तो ऐसे इंसान हमें कम ही मिलते हैं।
काका बोले,‘तुम्हारी मुलाकात ऐसे इंसान से हुई जो साधारण है, मगर फटी जींस पहनता है यानि फैशनबल है भी और नहीं भी। यह थोड़ा अजीब लगा मुझे।’
काका ने आगे कहा,‘बेटा तुम्हें लोग भी अलग-अलग किस्म के मिलते हैं। परसों तुम उस मूछों वाले की बात कर रहे थे जिसकी टाई का रंग उसकी कमीज से मेल खाता है। वैसे तुम खुद क्यों न कोई नया स्टाइल अपनाओ।’
मजबूरी में मुझे मुस्कराना पड़ा। मैंने काका को बताया कि मैं तो कमीज भी पैंट में नहीं दबाकर रखता और बैल्ट बगैरह मुझे बोझ की तरह महसूस होती है। स्टाइल-विस्टाइल से मैं दूर ही रहता हूं। सबसे मजेदार बात यह कि जींस भी मैंने कुछ समय से ही पहनना शुरु किया है। देखा जाये तो अजीब मैं खुद भी हूं।
बूढ़े काका बोले,‘मैं बुढ़ापे को जी रहा हूं। जैसा हूं खुश हूं। जमाना तब्दील हो रहा है, लोग भी। मुझे लगता है जींस का विषय मेरे जैसों के बस से बाहर है। दस साल पहले फटी जींस पर हंसी आती थी, आज लोग खुद उसे अपनी तरह से काट-पीट रहे हैं। यही बदलाव है, लेकिन बहुत हैरान करने वाला मेरे जैसों को।’
हैरान तो मैं होता था, लेकिन अब नहीं। जींस फट चुकी है, इंसान की कद्र नहीं। अपनी मर्जी के सब मालिक। उस मालिक की परवाह किसे है। कपड़े हैं, कपड़े नहीं क्या लेना, क्या देना। दिख सब रहा है और कुछ भी नहीं।
एक बात जरुर तय है हर किसी की खुशी उनके जीने के अपने तरीके में है।
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इसपर काका पहले मुस्कराये, दोबारा ठहाका लगाया फिर बोले,‘इससे तो हमारा जमाना ही अच्छा था। कम से कम कपड़ों पर थेगली या जोड़ लगा लेते। अब तो थेगली लगाना पागलपन कहलायेगा।’
काका ने सही कहा। उधड़े हुये या फटे हुए को सिलना बेकार है। जितना कम कपड़ा उतना फैशनेबल आप। तभी तो शहरों की फुटपाथ चलते-फिरते रैंप से कम नहीं।
बूढ़े काका को मैंने बताया कि मेरी हाल ही में एक व्यक्ति से मुलाकात हुई। उसकी जींस कई जगह से फटी हुई थी। मुझे लगता है कि उसने ऐसे ही पहन ली, बिना कोई गौर किये। वैसे वह व्यवहारिक इंसान है। उसकी शख्सियत किसी को भी प्रभावित कर सकती है। दिल से कुछ ज्यादा ही सोचता है वह। अपनी कम दूसरों की कुछ ज्यादा ही फिक्र उसे रहती है। देखा जाये तो ऐसे इंसान हमें कम ही मिलते हैं।
काका बोले,‘तुम्हारी मुलाकात ऐसे इंसान से हुई जो साधारण है, मगर फटी जींस पहनता है यानि फैशनबल है भी और नहीं भी। यह थोड़ा अजीब लगा मुझे।’
काका ने आगे कहा,‘बेटा तुम्हें लोग भी अलग-अलग किस्म के मिलते हैं। परसों तुम उस मूछों वाले की बात कर रहे थे जिसकी टाई का रंग उसकी कमीज से मेल खाता है। वैसे तुम खुद क्यों न कोई नया स्टाइल अपनाओ।’
मजबूरी में मुझे मुस्कराना पड़ा। मैंने काका को बताया कि मैं तो कमीज भी पैंट में नहीं दबाकर रखता और बैल्ट बगैरह मुझे बोझ की तरह महसूस होती है। स्टाइल-विस्टाइल से मैं दूर ही रहता हूं। सबसे मजेदार बात यह कि जींस भी मैंने कुछ समय से ही पहनना शुरु किया है। देखा जाये तो अजीब मैं खुद भी हूं।
बूढ़े काका बोले,‘मैं बुढ़ापे को जी रहा हूं। जैसा हूं खुश हूं। जमाना तब्दील हो रहा है, लोग भी। मुझे लगता है जींस का विषय मेरे जैसों के बस से बाहर है। दस साल पहले फटी जींस पर हंसी आती थी, आज लोग खुद उसे अपनी तरह से काट-पीट रहे हैं। यही बदलाव है, लेकिन बहुत हैरान करने वाला मेरे जैसों को।’
हैरान तो मैं होता था, लेकिन अब नहीं। जींस फट चुकी है, इंसान की कद्र नहीं। अपनी मर्जी के सब मालिक। उस मालिक की परवाह किसे है। कपड़े हैं, कपड़े नहीं क्या लेना, क्या देना। दिख सब रहा है और कुछ भी नहीं।
एक बात जरुर तय है हर किसी की खुशी उनके जीने के अपने तरीके में है।
-Harminder Singh
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