उस दिन लाजो की खुशी का ठिकाना न था। वह घड़ी आ ही गयी जिसका उसे बेसब्री से इंतजार था। मानवंती की शादी थी। घर में सजावट कर दी गई। मेहमान इधर से उधर घूम रहे थे। बच्चे उधम मचाते थे। आज उन्हें पूरी आजादी थी। ऐसा मौका रोज कहां मिलता है। फिर बच्चों को तो अवसर चाहिए। शादी-ब्याह से अच्छा समय शायद कोई होता भी न हो।
मैंने नीले रंग की कमीज पहनी थी। लाजो ने तब मेरे कपड़ों की तारीफ की थी। मैं काफी गदगद हो गया था। वह उस दिन बहुत सुन्दर लग रही थी।
मैंने उससे कहा,‘तुम ऐसे ही रहा करो।’
उसका जबाव था,‘फिर शादियां रोज होती रहें।’
मैं लाजो के साथ-साथ रहा या लाजो मेरे साथ, पता नहीं। जहां मैं जाता वह मेरे साथ होती। जहां वह चलती, मैं उसके साथ चलता। कई बार हम जल्दबाजी में आपस में टकरा भी गए। इसपर हम केवल क्षण भर लिए मुस्करा देते।
यह मुस्कराहट भी अनोखी होती है, मन को अनोखा बना देती है। हमारे बीच बातचीत नाम मात्र हो पाती। मेरे मन में उथलपुथल हो रही थी। कैसा दौर था वह? एकदम अजीब जिसकी परिभाषा सिर्फ भावों में दी जा सकती है।
मैं जाना नहीं चाह रहा था, मगर लाजो ने मेरा हाथ कसकर पकड़ा था। वह कह रही थी कि जीजी की दुल्हन वाली पोशाक देखेंगे। मैं अपने हाथ को छुड़ा नहीं पा रहा था। उसने कमरे के द्वार खोल दिए। वहां कई महिलाएं थीं। मानवंती की सहेलियां उसे घेरकर बैठी थीं। उसे सजाया जा रहा था। बीच-बीच में सहेलियां कुछ चुटकीली बातें कर माहौल को और चहकदार बना देतीं। लाजो ने मेरा हाथ अभी भी पकड़ा था। विवाह मानवंती का हो रहा था, शर्मा मैं रहा था। लाजो ने दुल्हन का जोड़ा मुझे दिखाया। उसपर सितारे-मोती जड़े थे। कुछ ही देर में मानवंती को उसे पहनना था।
बाहर आकर लाजो ने आंखें बड़ी कर पूछा,‘कैसी लग रही थी जीजी?’
मैंने कुछ नहीं कहा। मैं सिर्फ उसका चेहरा देखता रहा। वह खिलखिला रही थी। मुझे वह पल आज भी यादगार लगते हैं। वह दिन फिर लौट नहीं सकते। वैसे उनकी यादें काफी मीठी हैं।
बारात आ चुकी थी। दूल्हे को देखने के लिए महिलाओं की भीड़ थी। कुल मिलाकर माहौल पहले से अधिक चहल पहल वाला हो गया था। विदाई के समय मानवंती से गले मिलकर लाजो जीभर रोयी। उसकी आंखों में इससे पहले मैंने आंसू नहीं देखे थे। एक पल को मैं भी भावुक हो गया था। बेटी की विदाई का दृश्य नाजुक होता है। मां-बाप का दिल भर आता है। बेटी पराई हो जाती है। वह उनसे दूर जा रही होती है। बाबुल का आंगन छूटने के बाद पिता का घर ननसाल बन जाता है और पति का ससुराल।
जारी है...
-Harminder Singh
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मैंने नीले रंग की कमीज पहनी थी। लाजो ने तब मेरे कपड़ों की तारीफ की थी। मैं काफी गदगद हो गया था। वह उस दिन बहुत सुन्दर लग रही थी।
मैंने उससे कहा,‘तुम ऐसे ही रहा करो।’
उसका जबाव था,‘फिर शादियां रोज होती रहें।’
मैं लाजो के साथ-साथ रहा या लाजो मेरे साथ, पता नहीं। जहां मैं जाता वह मेरे साथ होती। जहां वह चलती, मैं उसके साथ चलता। कई बार हम जल्दबाजी में आपस में टकरा भी गए। इसपर हम केवल क्षण भर लिए मुस्करा देते।
यह मुस्कराहट भी अनोखी होती है, मन को अनोखा बना देती है। हमारे बीच बातचीत नाम मात्र हो पाती। मेरे मन में उथलपुथल हो रही थी। कैसा दौर था वह? एकदम अजीब जिसकी परिभाषा सिर्फ भावों में दी जा सकती है।
मैं जाना नहीं चाह रहा था, मगर लाजो ने मेरा हाथ कसकर पकड़ा था। वह कह रही थी कि जीजी की दुल्हन वाली पोशाक देखेंगे। मैं अपने हाथ को छुड़ा नहीं पा रहा था। उसने कमरे के द्वार खोल दिए। वहां कई महिलाएं थीं। मानवंती की सहेलियां उसे घेरकर बैठी थीं। उसे सजाया जा रहा था। बीच-बीच में सहेलियां कुछ चुटकीली बातें कर माहौल को और चहकदार बना देतीं। लाजो ने मेरा हाथ अभी भी पकड़ा था। विवाह मानवंती का हो रहा था, शर्मा मैं रहा था। लाजो ने दुल्हन का जोड़ा मुझे दिखाया। उसपर सितारे-मोती जड़े थे। कुछ ही देर में मानवंती को उसे पहनना था।
बाहर आकर लाजो ने आंखें बड़ी कर पूछा,‘कैसी लग रही थी जीजी?’
मैंने कुछ नहीं कहा। मैं सिर्फ उसका चेहरा देखता रहा। वह खिलखिला रही थी। मुझे वह पल आज भी यादगार लगते हैं। वह दिन फिर लौट नहीं सकते। वैसे उनकी यादें काफी मीठी हैं।
बारात आ चुकी थी। दूल्हे को देखने के लिए महिलाओं की भीड़ थी। कुल मिलाकर माहौल पहले से अधिक चहल पहल वाला हो गया था। विदाई के समय मानवंती से गले मिलकर लाजो जीभर रोयी। उसकी आंखों में इससे पहले मैंने आंसू नहीं देखे थे। एक पल को मैं भी भावुक हो गया था। बेटी की विदाई का दृश्य नाजुक होता है। मां-बाप का दिल भर आता है। बेटी पराई हो जाती है। वह उनसे दूर जा रही होती है। बाबुल का आंगन छूटने के बाद पिता का घर ननसाल बन जाता है और पति का ससुराल।
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