बूढ़े काका शहर से बाहर थे। पता चला कि वे अपने किसी रिश्तेदार के यहां समय बिता रहे थे। हाल ही में लौटे हैं। सुबह दौड़ते हुए मिल गये। वे मुस्कराये और मैं भी उतना ही।
पूछा कि मेरी दौड़ और उनकी टहल का समय नहीं बदला, आखिर वजह क्या है?
मैंने यूं ही कह दिया,‘न आप बदले और न मैं। और क्या सबूत चाहिए।’
उम्रदराजों के लिए सुबह का टहलना बेहद जरुरी है। इससे उनके शरीर को नयी ऊर्जा मिलती है। साथ ही उम्र में बुढ़ापे का अहसास उतना बोझिल भी नहीं लगता।
बूढ़े काका ने चिपरिचित अंदाज में कहा,‘जिंदगी असल में खुशनसीबी लाती है क्योंकि इतने लोग यहां से गुजर रहे हैं, एक दूसरे से मिलते हुए, मुस्कान बांटते हुए।’
दरअसल सुबह टहलते हुए खुली सांस तो मिलती ही है, साथ में ढेरों लोग आपस में मिलते हैं। अपनी बात कहते हैं, दूसरे की सुनते हैं।
काका बोले,‘ये पल सुकून भरे हैं। सुबह का वक्त ही कुछ ऐसा है। आनंद, सीमा से परे और जीवन की अठखेलियों सी निराली सुबह का साथ।’
मैंने अपने कदमों को काका के साथ मिलाया। गति मंथर हो या तीव्रता लिए हुए, हम ठहरे हुए नहीं होते। हलचल हो रही होती है, हमारे आसपास और हममें भी।
काका ने कहा,‘तुम गति को बांध नहीं सकते। मैंने तो सोचा भी नहीं। यह खुद को बांधने जैसा भी है।’
हाथ-पैर न मारने वाली कला की ऐसी कहानी जो सिमट-सिमट कर रेंग नहीं सकती और जिसका ध्येय उसे विरासत में नहीं मिला। गति जुड़ती है जीवन से, हमारे विचारों से और उस समय से जो हमें जोड़े रखता है। तमाम तरह की ख्वाहिशें हमें दौड़ाती हैं, लेकिन कई राहों के बीच आखिर हम एक चुनते हैं जो यकीनन बेहतर न सही, पर कुछ हद तक हमें तृप्त करती प्रतीत होती है।
मैंने दौड़कर अपने शरीर को बहुत कुछ सिखाया है। साथ ही मस्तिष्क को नयी ताकत प्रदान की है। काका बुजुर्ग जरुर हैं, लेकिन उनका शरीर इतनी उम्र पार करने के बाद भी जवानों की तरह ऊर्जावान है।
काका ने कहा,‘खुद का हिसाब रखना पड़ता है। इस बुढ़ापे में जीवन की संध्या आने का पता नहीं चलता। पुर्जों को जितने दिन चलाया जाये चलते रहें बिना किसी कसमसाहट के। ऐसा बिल्कुल न लगे कि जीवन को जो हासिल करना था, वह हासिल कर चुका। यह जीवन का सच नहीं हो सकता।’
मैंने कहा,‘उम्र कहती भी है कि जब झुर्रियों की चादर इंसान से लिपट जाये तो उसे उनकी कद्र करनी चाहिए। जानता है हर वृद्ध की झुर्रियों को ओढ़कर हम कितनी सदियां चल सकते हैं, क्योंकि जीवन के सागर में गोते लगाने वाले भी इंसान ही होते हैं।’
इसपर काका बोले,‘यकीनन बदलाव हम स्वयं ही लाते हैं। ऐसा होना भी चाहिए। बिना बदलाव के जीवन में नीरसता न चाहते हुए भी समा ही जाती है।’
मैंने सोचा कि जीवन का उत्सव शानदार है और अद्भुत भी। खुद ही इतनी बातें, और खुद ही इतने उत्तर देता हुआ इंसान, बढ़ता जाता है एक राह, तो अनेक राह इसी उम्मीद के साथ की कुछ तो अच्छा होगा।
-Harminder Singh
पूछा कि मेरी दौड़ और उनकी टहल का समय नहीं बदला, आखिर वजह क्या है?
मैंने यूं ही कह दिया,‘न आप बदले और न मैं। और क्या सबूत चाहिए।’
उम्रदराजों के लिए सुबह का टहलना बेहद जरुरी है। इससे उनके शरीर को नयी ऊर्जा मिलती है। साथ ही उम्र में बुढ़ापे का अहसास उतना बोझिल भी नहीं लगता।
बूढ़े काका ने चिपरिचित अंदाज में कहा,‘जिंदगी असल में खुशनसीबी लाती है क्योंकि इतने लोग यहां से गुजर रहे हैं, एक दूसरे से मिलते हुए, मुस्कान बांटते हुए।’
दरअसल सुबह टहलते हुए खुली सांस तो मिलती ही है, साथ में ढेरों लोग आपस में मिलते हैं। अपनी बात कहते हैं, दूसरे की सुनते हैं।
काका बोले,‘ये पल सुकून भरे हैं। सुबह का वक्त ही कुछ ऐसा है। आनंद, सीमा से परे और जीवन की अठखेलियों सी निराली सुबह का साथ।’
मैंने अपने कदमों को काका के साथ मिलाया। गति मंथर हो या तीव्रता लिए हुए, हम ठहरे हुए नहीं होते। हलचल हो रही होती है, हमारे आसपास और हममें भी।
काका ने कहा,‘तुम गति को बांध नहीं सकते। मैंने तो सोचा भी नहीं। यह खुद को बांधने जैसा भी है।’
हाथ-पैर न मारने वाली कला की ऐसी कहानी जो सिमट-सिमट कर रेंग नहीं सकती और जिसका ध्येय उसे विरासत में नहीं मिला। गति जुड़ती है जीवन से, हमारे विचारों से और उस समय से जो हमें जोड़े रखता है। तमाम तरह की ख्वाहिशें हमें दौड़ाती हैं, लेकिन कई राहों के बीच आखिर हम एक चुनते हैं जो यकीनन बेहतर न सही, पर कुछ हद तक हमें तृप्त करती प्रतीत होती है।
मैंने दौड़कर अपने शरीर को बहुत कुछ सिखाया है। साथ ही मस्तिष्क को नयी ताकत प्रदान की है। काका बुजुर्ग जरुर हैं, लेकिन उनका शरीर इतनी उम्र पार करने के बाद भी जवानों की तरह ऊर्जावान है।
काका ने कहा,‘खुद का हिसाब रखना पड़ता है। इस बुढ़ापे में जीवन की संध्या आने का पता नहीं चलता। पुर्जों को जितने दिन चलाया जाये चलते रहें बिना किसी कसमसाहट के। ऐसा बिल्कुल न लगे कि जीवन को जो हासिल करना था, वह हासिल कर चुका। यह जीवन का सच नहीं हो सकता।’
मैंने कहा,‘उम्र कहती भी है कि जब झुर्रियों की चादर इंसान से लिपट जाये तो उसे उनकी कद्र करनी चाहिए। जानता है हर वृद्ध की झुर्रियों को ओढ़कर हम कितनी सदियां चल सकते हैं, क्योंकि जीवन के सागर में गोते लगाने वाले भी इंसान ही होते हैं।’
इसपर काका बोले,‘यकीनन बदलाव हम स्वयं ही लाते हैं। ऐसा होना भी चाहिए। बिना बदलाव के जीवन में नीरसता न चाहते हुए भी समा ही जाती है।’
मैंने सोचा कि जीवन का उत्सव शानदार है और अद्भुत भी। खुद ही इतनी बातें, और खुद ही इतने उत्तर देता हुआ इंसान, बढ़ता जाता है एक राह, तो अनेक राह इसी उम्मीद के साथ की कुछ तो अच्छा होगा।
-Harminder Singh