राहुल को मैथ्स की एक किताब खरीदनी थी। उस दुकानदार के पास अक्सर मैं जाता रहता हूं क्योंकि वहां कई सामान जैसे ही काॅपी, पैन और पढ़ाई-लिखाई से संबंधित अन्य सामग्री मिल जाती है। साथ में मैं वहां अपने लिए स्पेशल डिस्काउंट भी करा लेता हूं।
दुकानदार से मैंने किताब दिखाने को कहा। उसने दो गणित की किताबें दिखा दीं। फिर काफी देर तक हम बातें करते रहे। राहुल ने दुकानदार से पूछा कि उनके पास दूसरे विषयों की भी पुस्तकें मिल जायेंगी। इसपर दुकानदार बोला कि अभी कोर्स में बदलाव होने की उम्मीद बताई जा रही है, इसलिए किताबें देर से आयेंगी, लेकिन इसी सप्ताह आने की पूरी उम्मीद है।
मैंने कहा कि आप मुझे अपना फोन नंबर दे दीजिये। यहां आने के बजाय हम घर से ही पता कर लेंगे। दुकानदार ने अपना नंबर दे दिया। उसने मुझसे मेरा नंबर पूछा, मैं गोल हो गया। कमाल तो यह रहा कि मुझे अपना नंबर ही याद नहीं आया। भला ऐसा भी कहीं होता होगा कि आपको अपना निजि नंबर याद न आये। आज के जमाने में आप सबसे बड़े बेवकूफ माने जायेंगे। संयोग से मेरे पास मोबाइल नहीं था, मैं देखकर बता सकता था। उसे मैं जल्दी में घर भूल आया था। ऐसा पहली बार हुआ था। वैसे इस तरह मुझसे नम्बर भी पहली बार पूछा गया था। मेरे पास कोई कार्ड बगैरह भी नहीं था। नीरा ’कोरा मानुष’ बन कर घर से आया था। शुक्र है किसी ने पूछा नहीं कि भैया कमीज के बटन भी पूरे लगाये हो या उन्हें भी भूल गये।
मैंने कहा,‘शायद मेरी यादाशत अच्छी नहीं है।’
दुकानदार ने कहा,‘इतनी यादाश्त तो सबकी होती है।’
मुझे बड़ी शर्मिंदगी सी महसूस हुई। दरअसल मैंने अपना सिम हाल ही चेंज किया था और नया नंबर कल लेने वाला था, नये फोन के साथ। लेकिन पुराना नंबर भी मैं पता नहीं क्यों भूल गया? यह कमाल नहीं तो और क्या है?
राहुल से मैंने रास्ते में कहा कि चाहें कुछ भी हो जाये, याद्दाश्त को पैना करना ही है। जैसे ही मैं दुकान से बाहर निकला अचानक मेरे मोबाइल नंबर याद आ गया।
राहुल ने कहा कि उसे खुद अपना नंबर याद नहीं रहता। मेरे साथ यह पहली बार हुआ था।
-हरमिन्दर सिंह चाहल.
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