मैं बोला,‘हम अपने कर्मों के आधार पर अच्छे और बुरे हैं। जैसा करेंगे, वैसा भोगेंगे। संसार के इस नियम का पालन हमें करना चाहिए। फिर आस्तिक और नास्तिक की बात क्यों की जाती है?’
इसपर काकी ने कहा,‘यह हमारा भ्रम है। संसार में आस्तिक और नास्तिक होने का कोई विशेष महत्व नहीं। महत्व तो कर्मों का है। कर्म के कारण इंसान फल भुगतता है। ऐसा नहीं है कि हम जिंदगी भर फल नहीं भुगतेंगे। समय आता है। समय आने पर सब दिख जाता है। फल न भोगे और इस संसार से विदा ले ली, ऐसा न किसी के साथ हुआ है और न होगा। राजा, दानी, सभी को अपने हिस्से का फल मिलता है। यह जीवन की सच्चाई है। यह उसी तरह है जैसे बुढ़ापा जीवन का बड़ा सच है। मृत्यु भी एक बड़ा सच है। हम जन्म ही इसलिए लेते हैं ताकि मर सकें। मतलब यह कि मरने के लिए ही इंसान पैदा होता है।’
‘यहां कुछ अपना नहीं है। यहां पराया भी कोई नहीं है। यह जीवन है। जीवन जाने के लिए आया है। आने के लिए जीवन का मतलब नहीं। विदाई की बेला पर आंखें गीली हो सकती हैं। दर्द हृदय को भिगो सकता है। यह पलों का खेल है। पल बीतते हैं, जीवन बीतता जाता है।’
मैं सोच में पड़ गया कि जीवन जीना महत्व नहीं रखता। जीवन किस तरह से जिया जाये यह महत्व रखता है। आखिर कर्म जीवन ही उत्पन्न करता है। यहीं आस्तिक और नास्तिक का भेद खत्म हो जाता है। रह जाता है सिर्फ इंसान और जीवन का संघर्ष!
-हरमिन्दर सिंह चाहल.
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