सफरनामा : गजरौला से बिजनौर -2

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रेलगाड़ी की गति धीरे-धीरे तेज हो रही थी। बूंदों का गिरना जारी था। जिस खिड़की के पास मैं बैठा था वहां छीटें आ रही थीं। मेरे कपड़ों पर उनके निशान कुछ समय के लिए ठहरते, फिर गायब हो जाते। यह तब तक जारी रहा जबतक मैंने खिड़की को बंद नहीं किया। हां, शीशे से मैं बाहर का नजारा देख सकता था, लेकिन स्पष्ट नहीं। हमारी रेलगाड़ियों की व्यवस्था बहुत दयनीय है। यहां साफ-सफाई पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता। शीशे तो शायद ही कभी साफ किये जाते हो। वह शीशा धुंधला था। बाहर की ओर से वह बूंदों के कारण ही साफ हुआ था, भीतर से मैंने उसे साफ किया। कई जगह खरोचों के निशान थे। पानी से साफ होने के वावजूद बूंदों के लगातार गिरने से नजारा स्पष्ट होना मुश्किल था। देखा जाये तो 70 प्रतिशत देखा जा सकता था जो उस समय बहुत था।

भिखारी का आगमन

डिब्बे के दूसरे हिस्से से एक भिखारी आया। वह बूढ़ा था। एक हाथ में छड़ी, दूसरे को आगे फैलाये हुए वह नाजुक कदमों से ‘भगवान तेरा भला करे’ कहता हुआ गुजर रहा था। ऐसा प्रतीत होता था कि वह पूर्ण रुप से अंधा है। मैंने उसे दस का नोट दिया। तब उसके चेहरे पर मुस्कान देखने लायक थी। झुर्रियां अपनी बनावट खोती नहीं, मगर उनमें परिवर्तन समय के साथ रेखांकित होता रहता है। यह उनकी खासियत है। जरुर उसने दिल से दुआ दी होगी।

मुझे नहीं लगता डिब्बे में किसी ने उसे एक पैसा भी दिया होगा। जहां तक मैंने गौर किया उसका हाथ उसी तरह था और वह बिना रुके धीमी गति से चल रहा था। वह कहीं रुका नहीं।

मुझे हैरानी इस बात की अधिक हुई कि जितने मुसाफिर वहां मौजूद थे उनमें से किसी के पास पैसे नहीं थे उसे देने के लिए। ऐसा लगता था जैसे उनकी जेब ढीली हो जाती या वे गरीब हो जाते। एक या दो टूटा सिक्का सफर के दौरान लगभग सभी के पास हो सकता है। भिखारी था न, इसलिए लोग शर्मा गये।

बारिश तेज हो गयी
जैसे-जैसे गाड़ी की गति बढ़ रही थी, बारिश तेज होती जा रही थी। बूंदों के टकराने की आवाज सुनी जा सकती थी -तड़-तड़-तड़। डिब्बे में पानी पहले से भरा था। खिड़कियां पूरी तरह बंद नहीं हो पायी थीं। कुछ मुसाफिर यह कोशिश में लगे हुए थे कि खिड़की के पानी का रिसाव बिल्कुल नहीं हो, लेकिन खिड़कियां थीं ही ऐसी। उनसे पानी डिब्बे के भीतर प्रवेश कर रहा था। उसे रोका नहीं जा सकता था। कितने प्रयास किये मैंने भी, मगर मेरे पास वाली खिड़की से पानी ढलक कर मेरी सीट पर आ गया था। मुझे वहां से उठकर दूसरी सीट पर बैठना पड़ा। वहां पहले से काफी गीला था। जेब में रुमाल निकालकर मैंने उसे सुखाने की कोशिश की। काफी हद तक सीट सूख गयी।

एक महिला बहुत जतन कर रही थी। वह खिड़की को चटखनी लगाती, लेकिन नाकाम होती। मुझे मालूम था कि वह दुबली महिला ऐसा नहीं कर सकती। मैंने उसकी मदद की। खिड़की में कुछ अटक रहा था जिसे निकालकर उसे बंद किया। मगर जोर मुझे भी लगाने पड़े।

सफरनामा जारी रहेगा ....

-हरमिन्दर सिंह चाहल

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