सुबह उठा तो पाया कि कोहरे की एक चादर सामने है। मैं खुद में सिमटा हुआ काफी देर तक कोहरे को देखता रहा। उसके पार कितनी दूर तक देख सकता था, यह मैं नहीं जानता था, लेकिन मैं उन घरों को स्पष्ट नहीं देख पा रहा था जो आमतौर पर दिख जाते थे। यह सरदी का मौसम था और आज घना कोहरा था।
घर के पीछे बिजली के तारों ते नीचे सजा एक जाल भी बूंदों से नहाया हुआ था। नम मौसम के कारण उसपर नमी की बूंदों की एक परत चढ़ी हुई थी जो मौका मिलते ही टपक रही थी। मैंने सोचा कि लोगों को सरदी कंपकपा रही है लेकिन नंगे तारों पर इसका असर नहीं होता। वे हाड-मांस से रिश्ता नहीं रखते।
शरीर पर एक कमीज, उसपर मोटी जर्सी और एक कंबल ओढ़कर मैं अभी तक दीवार से कुछ दूरी बनाकर खड़ा था। दीवार की ऊंचाई मुश्किल से डेढ़ या दो फिट की रही होगी जिसपर से आसान था झांकना, लेकिन मैं छोटा बच्चा नहीं हूं। मेरी ऊंचाई 6 फीट के आसपास है। परिवार के सभी सदस्यों से यह ज्यादा है।
वह चिड़िया जो मेरे सामने बिजली के तारों पर सिकुड़ी बैठी थी, अचानक फुदक कर उड़ गयी। किसी झुंड का हिस्सा नहीं होना भी एक तरह से चिड़ियों के लिये असुरक्षा की भावना जाग्रत कर देता है, शायद वही उसके यकायक वहां से चले जाने का कारण था।
चाय का मग अब मेरे हाथ में था। वह किनारे तक तो नहीं भरा था, मगर हिलने पर कुलांचे मारती चाय को गिरने से मैं रोक नहीं सकता था।
मग से भाप का निकलना जारी था। उसका मिलन कोहरे से जायज था। दोनों का आत्मसात होना एक नई कहानी नहीं गढ सकता था। यह होना तय था -भाप को भाप में मिलकर भाप बन जाना है या गायब हो जाना है।
चुस्की की आवाज को आने से मैं रोक नहीं सकता था। महेश के दादाजी आज भी कप से चाय को प्लेट में गिराकर पीते हैं। तब सुपड़-सुपड़ जैसे कोई ध्वनि आती है। उसे कई लोग सभ्य नहीं मानते। मैं बचपन में खुद ऐसे चाय पी चुका हूं। दूध को भी एक बार ऐसे पीने की कोशिश की लेकिन उसे गिलास से उड़ेलने के कारण दूध प्लेट से बाहर आ गया था।
हवा चलने लगी थी। कोहरा हवा के साथ दौड़ने को मजबूर था। मग को अपने साथ लेकर मैं रसोई की ओर गया। मां गैस-स्टोव पर पानी गर्म कर रही थीं। उनकी हिदायत थी कि मैं बाहर न घूमूं। ठंड से मुझे जुकाम हो सकता है, इसलिये मुझे रजाई मैं वक्त बिताना चाहिये। समय चार या पांच बजे का नहीं हुआ था जो मैं रजाई में सिमटकर लेटा रहूं। घड़ी की सूई नौ के करीब पहुंचने को बेताब थी। अभी कुछ देर पहले फैक्ट्री का हूटर बजा था।
सूरज के दर्शन होने हैं यह हर किसी को कल की तरह आज भी भरोसा है। मौसम का हाल जानने के लिये मैंने सभी अखबारों में शहर का हाल जाना। एक अखबार कहता था कि आज हल्के बादल छा सकते हैं। दूसरे ने बताया कि शाम को बूंदा-बांदी हो सकती है। तीसरे और चौथे अखबार की राय भी वैसे ही थी। यानि यह कहा जा सकता था कि उस दिन का मौसम राहत नहीं पहुंचाने वाला किसी भी तरह नहीं हो सकता था।
लोगों को अब घर में छिपकर रहना पड़ सकता है। रजाई की गरमाहट लेनी पड़ सकती है। चाय का लुत्फ लेना पड़ सकता है। कंबल में सिमटकर बच्चों के साथ मौज-मस्ती करनी पड़ सकती है। टीवी देखकर मनोरंजन करना पड़ सकता है। किसी तरह समय को काटना पड़ सकता है।
ऐसे मौके पर पढ़ने-लिखने के शौकीन लोग रजाई में बैठकर पढ़ सकते हैं। बच्चों को अपने विषय का अध्ययन करने में कठिनाई न हो बशर्ते उनका मन किताब में होना चाहिये।
दिनभर तो कोई एक स्थान पर चिपक कर बैठ नहीं सकता लेकिन समय को अपने तरीके से बिता जरूर सकता है।
मैं पहले लूडो और कैरम का खेल खेलता था। बचपन के दिनों में यह आम होता था। पड़ोस के बच्चे हमारे घर इकट्ठे हो जाते। हमपर सरदी या गरमी का असर नहीं होता था। खेल में ही सारा ध्यान लगा रहता था। सुबह से कब दोपहर हो जाती पता नहीं चलता था। मां जब दोपहर के भोजन को पुकारती तो नजर घड़ी पर जाती। खेल तबतक जारी रहता जबतक पड़ोस से कोई दूसरे बच्चों को बुलाने नहीं आ जाता। शाम को अंधेरा होने तक खेल फिर से जारी रहता।
मैंने नहाने की सोची। पानी उबाल ले रहा था। ताजा पानी से नहाने का विचार मैंने इन सरदियों में त्याग दिया था। कारण कई थे जबकि सबसे बड़ी वजह थी मेरी बीमारी। ऐसा नहीं था कि ताजा पानी से नहाने के कारण मैं अधिक बीमार हो जाता, बल्कि चिकित्सक ने कहा था। गुनगुने पानी से नहाने की सलाह का मुझपर असर हुआ था। मेरी सेहत मैं सुधार आ रहा था।
मुझे व्यायाम की नहीं सूझी। कोहरा छंटने का नाम नहीं ले रहा था। मैंने हाथों को कसरत के लहजे में यहां-वहां घुमाया ताकि थोड़ी गरमाहट आ सके। कुछ दूरी तक हल्की दौड़ की। चेहरा ठंडी हवा के छूने से ओर ठंडा हो गया। नाक तो जैसे एकदम लाल हो गयी। आंखों में ढेर सारी ठंड भर गयी। कान कंपकपा रहे थे।
गर्दन को हिलाया, कमर को घुमाया। बाहों को फैलाकर टांगों से थोड़ी कसरत करनी चाही। शरीर में गर्माहट लाने का यह छोटा प्रयास था।
स्नान-घर पहुंचकर पानी को हाथ से उलट-पलटकर देखा। भरोसे के साथ पानी को मुंह पर डाला। मैं नहा रहा था।
भाप स्नान-घर में तैर रही थी। सीकचे के सहारे वह बाहर जा रही थी। पानी शरीर के हिस्सों को पूरी तरह भिगो गया था। स्नान संपूर्ण हुआ। तौलिया गीलेपन को समाप्त करने में कामयाबी से जुटा। नये वस्त्र धारण कर एक अलग स्फूर्ति का एहसास हुआ। शरीर हल्कापन लिये था।
कंबल को ओढ़कर चाय का मग फिर हाथ में थामे मौसम का जायजा लिया। कोहरे की चादर कम नहीं हुई थी। हवा के साथ वह जरूर तैर रहा था।
धुंधले और ठंडक भरे नजारे जीवन में हर साल आते हैं।
जिंदगी की गाड़ी पर मौसम की लहर का असर जो भी पड़ता हो लेकिन यह तय होता है कि सुबह के बाद शाम होगी और हमारे काम उसी तरह चलते रहेंगे।
-हरमिन्दर सिंह चाहल.