
महेश एक कोने में सिकुड़कर बैठता है। लगता है वह बुरी तरह डरा हुआ है। क्या पता उसकी मानसिक स्थिति ऐसी हो चली है। मैंने उससे नजरें मिलाने की कोशिश की। वह घबरा गया और पलकें झुका लीं। चेहरे पर भय की लकीरें उभर आयीं।
मैंने सोचा कि नाहक में उसे परेशान कर रहा हूं।
उस रात में गंभीर सोच में था। वह उसी कोने में सिकुड़ा था। कंबल पूरे शरीर को ढक नहीं पा रहा था। वह कोशिश भी नहीं कर रहा था। शायद उसे सर्दी का अहसास नहीं हो रहा था। शरीर में कोई हलचल नहीं थी, ठंडी दीवार से सटा था।
महेश की चुप्पी ने मेरे लिए कई सवाल छोड़ दिये। उनका उत्तर में नहीं समझ पा रहा। मेरे साथ क्यों ऐसा होता है कि जो लोग उलझनों में उलझे हैं, उनका संपर्क मुझसे होने को है। पहले से ऐसा होता आया है।
शायद महेश के जीवन को मैं जान सकूं। अभी तक मैंने कई लोगों की जिंदगी के पन्नों को उनसे पढ़वाया है। मेरी जिंदगी की किताब के पन्ने बिखरे पड़े हैं जिनका सिमटना मुश्किल है। या यों कहें कि वक्त ने बहुत कुछ बदल दिया है। मैं पहले जैसा नहीं रहा।
हम समय के साथ बदलते रहते हैं और परिवर्तन जीवन का जरुरी हिस्सा है।
मेरा ख्याल है कि हमें अपनी उम्मीदों को नहीं छोड़ना चाहिए। उम्मीद पर दुनिया टिकी है।
सुबह से शाम बीत गयी, लेकिन महेश की चुप्पी नहीं टूटी। उसकी आंखें वैसे ही बनी हैं -डरी और सहमी। उनमें उदासी छायी है जो उसे और अधिक व्यथित बना देती है। मैंने उसकी आंखों में झांकने की कोशिश की, पर वह पलकों से उसका बचाव करता है। उसकी दीवार पर एकटक निगाह रहती है। कुछ देर बाद वह अपनी नजर का रुख बदलता है।
रात सपने में लाजो आयी थी। उसके साथ एक लड़की थी। उसने लाजो का हाथ पकड़ रखा था और कह रही थी ,‘मैं ले आयी तुम्हारी लाजो को। थाम लो हाथ।’ वह लछमी थी। उसने लाजो का हाथ मेरे हाथ में थमा दिया।
हम एक ऊंचे टीले पर बैठे रहे। दूर खड़ी लछमी मुस्करा रही थी। लाजो की आंखें भर आयी थीं। मेरे आंसू बह निकले। खुशी इतनी थी कि शब्दों में बयान करना मुश्किल था। यकीन नहीं कर पा रहा था क्योंकि लाजो से मिलन की मेरी उम्मीद बहुत वक्त पहले दम तोड़ चुकी थी।
हम एक-दूसरे की आंखों में देखते रहे यूं ही, बस यूं ही।
मैंने उससे पूछा,‘इतने दिन कहां थीं तुम?’
वह बोली,‘मैं.......।’
तभी वार्डन के चिल्लाने की आवाज से मेरी नींद टूट गयी।
जारी है...
-हरमिन्दर सिंह चाहल.
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