नीड़ अब अपने नहीं

नीड़ अब अपने नहीं


नीड़ अब अपने नहीं रह गये। बदलते समाज में आज बहुत से बुजुर्ग उनके नीड़ों से उजाड़े जा रहे हैं। संयुक्त परिवारों में बिखराव आ गया है। उनमें टूट-फूट है, दीवारें पता नहीं कब से गिर रही हैं। एहसास करने वाले एक कोने में चुपचाप यह तमाशा देख रहे हैं। अब उनका जीवन तमाशे से कम नहीं रह गया है। यह कोने पहले अपने घर का हुआ करता था, आज किसी अन्जान कोने में पड़े हैं। वहां क्यों कोई किसी से कुछ पूछे, किसी को क्या पड़ी है? यह आसान नहीं है घड़ी, तमाशबीन हैं सब, अपनें भी और पराये भी। सहारा किसी की सलामती की दुआ नहीं करता, वह मिल जाये तो सब सलामत।

सड़कें वीरान हैं तो हमसे क्यों पूछते हो? पता करो कि माजरा क्या है। कुछ ऐसी ही वीरानी बूढ़ों की जिंदगी में भी है। एक मायूसी सूखे पत्ते की खड़खड़ाहट से भी पैनी, बस सुनाई देने की देर है। जिल्द चढ़ी किताब के पन्ने कुतरें हुये पड़े हैं, ये भी कुछ-कुछ उनके जैसी दशा है। एक डोर छूटने को बेताब है। वक्त कहे तो छूट जाये।

लेकिन इतना सब हो गया, फिर भी कोई शोर नहीं। लगता है अब शोर थम गया है। आहटें कम हो गयी हैं। कंपकंपाती कहीं से आवाज आती है। आने दो, उसका भी मन है। वह भी एक दिन बंद लिफाफे में सिमट जायेगी, ढूंढने से भी नहीं मिलेगी।

हाथों की रेखायें गहरीं जरुर हैं, लेकिन उनमें कोई नदी बहती नहीं, रेत की भी नहीं। मायूसी के समंदरों के थपेड़ों की कोशिशें अब नाकाम नहीं होतीं, सूखी आंखें अब नहीं रोतीं, बस रोता तो मन है वो भी बिना रोये। यह राख अब गीली भी हो जाये कुछ फायदा नहीं। हलक सूख रहा है, सूखने दो। यह वक्त ही कुछ ऐसा है कि सारी नमी को छीन रहा है। बुढ़ापा तन्हाई की आदत और दुख का सैलाब ला रहा है।

बुढ़ापा तन्हाई की आदत और दुख का सैलाब ला रहा है। बहुतों ने इससे पार पाने की कोशिशें कीं, वे बूढ़ी हड्डियों के बावजूद अड़े हैं, पर कब तक?

-Harminder singh