बूढ़ी काकी की आंखों की गहराई न जाने कितना कुछ समेटे है। उसकी निगाह में वह बात नहीं रही।
‘‘जीवन धुंधली जरुर हो गया, लेकिन दिखता तो है।’’ काकी बोली।
पुतलियां डूबी-सी मालूम पड़ती हैं। काला घेरा पुरानेपन को ओर बारीकी से समझने की ओर इशारा करता है। असल में जीवन कितना समय गंवा चुका, यह मैं जान गया।
‘‘तस्वीर धुंधली है, मगर सफर की शुरुआत होते हुए देखी है इन आंखों ने। ........और जीवन के विराम की भी यही गवाह होंगी। तब आखिरी बार झपकेंगी ये पलकें।’’ काकी बोली।
काकी का चेहरा शुष्क है, पर भावों की अभिव्यक्ति निराले अंदाज में करता है। उसे पढ़ने की कोशिश मेरे जैसा इंसान जरुर करता, पर बारीकी तो इस चमक में कहां, वह तो धुंधला होकर भी स्पष्ट देख पाती है।
‘‘सफेदी पर पीलापन हावी हो चुका। सब कुछ घुलता-सा नजर आ रहा है। यह मिलन समय की देन है। यहां भी मिलना है, वहां भी। किसी बहाने शुरुआत तो हुई।’’ इतना कहकर काकी ने मेरी ओर देखा।
इंसान जब गंभीर होता है तब उसकी कई शंकाओं का निवारण होता सा दिखता है। काकी किसी सोच में डूबी थी। उसकी आंखें कुछ पल के लिए बंद हो गयीं। अब धुंधलेपन ने अंधकार की शक्ल ले ली। शायद कुछ खोज रही थीं आंखें।
कमजोर और थकी काया को ढोती काकी जीवन को नीरसता से बचाती है। मैं ज्यादातर समय उसके साथ होता हूं। तब वह खुद को भूल जाती है- बुढ़ापे को यही तो चाहिए। किसी बहाने उसकी पीड़ा थोड़ी सिमट जाये। किसी बहाने वह फिर से मुस्करा जाए। फिर क्यों न बुढ़ापे को किसी बहाने हंसाया जाए। उसके दर्द को समझा जाए ताकि वैसी अवस्था आने पर हमारे भी कोई साथ हो।
उन थकी आंखों को थोड़ी तसल्ली मिले। उनमें बसा सूखापन क्या पता नमी ले आये?
ठहरी हुई आकांक्षा को थोड़ा हिलने-डुलने का अवसर चाहिए। जीवन की कथा यूं ही चुपचाप नहीं लिख जाती। न वह ठहरता है, न वह यह कहता कि वह रुक कर किसी का इंतजार करेगा। उसे एक गति मिली हुई है जो जारी है- कहीं कम, कहीं ज्यादा।
काकी के चेहरे की सिलवटों पढ़ना मुश्किल है। यह स्थल शुष्कता और गहराई का समावेश मालूम पड़ता है। इंसान की शक्ल की तब्दीली को पढ़ पाना मुश्किल हो जाता है। दरारों में कई बार कितनी कहानियां एक के बाद एक परत बनकर तैर रही होती हैं, हम जान नहीं पाते।
-harminder singh