एक कैदी की डायरी -21

आज सादाब अपनी मां से मिला। वह काफी भावुक हो गया था। मैं उसके साथ ही था। उसने मुझे एक ऐसी मां से मिलाया जो कभी चारपाई पर मौत से जूझ रही थी, आज जमाने से लड़ रही है। उसका हौंसला इतना सब होने के बाद भी डिगा नहीं।

स्त्री है, दो जवान बेटियों की मां जिसका पति कब का मर चुका। भाई धोखेबाज निकला और इकलौता बेटा उसकी हत्या की सजा काट रहा है। कैसा खेल खेला जा रहा है पता नहीं। ऊपर से गरीबी का दंश जो न चैन से जीने देता है और न मरने। एक खूनी की मां कहने पर इस मां को बुरा नहीं लगता।

मेरी आंखें कुछ बूंदें टपका गयीं। भला रोती आंखें हंस कैसे सकती हैं, पर एक मां का स्पर्श पाकर आत्मिक शांति का अनुभव हो रहा था। मैं रोता हुआ चेहरे पर मुस्कराहट के भाव लिए था। उस महिला के हाथों को छूकर मुझे अपनी मां की याद आ गयी। कुछ पल को मैं खो गया था।

सादाब की अम्मी के चेहरे को मैं निहारता रहा। वाकई मां का दुलार थोड़े समय का ही सही लेकिन भीतर तक असर करता है। उसका अनुभव वाह्य नहीं, आंतरिक है। यह प्रकृति है कि हम सुख को दुख पर परत बनाकर उसे अपनेपन में महसूस करते हैं।

-to be contd....


-Harminder Singh