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खैर, उन महाशय ने ताजा ही दाड़ी बनायी थी। मूछें पूरी तरह काली नहीं थीं क्योंकि सफेदी के छींटे वहां पड़े थे। अंदाजे से सफेद-काले का प्रतिशत निकाला जा सकता था -पचास प्रतिशत कहना ज्यादा उचित होगा।
उनकी कमीज धारियों वाली थी जिसका रंग मुझे याद नहीं, जबकि पैंट का रंग नीला था। वैसे भी रंगों के मामले में मेरी याददाश्त उतनी मजबूत नहीं है।
मैं उस व्यक्ति से वार्तालाप करने के मूड में नहीं था। ऐसा बिल्कुल नहीं था कि मैं गुस्से में था या मिलता-जुलता कारण था, बस यूं ही चुपचाप था।
अगले स्टेशन पर एक व्यक्ति मेरे सामने था। मुझे दोनों की उम्र एक समान लगी -लगभग 50-55 के मध्य।
उनमें बातचीत का दौर शुरु हो गया।
‘कहां जा रहे हैं? कहां के रहने वाले हैं? अकेले हैं?’ ,बगैरह-बगैरह।
मुस्कान चेहरों पर खिंच जाती। पुतलियों में इधर-उधर मचलने की हसरत कोई नयी नहीं थी। भावों की परिक्रमा आम थी। वस्तुत: सामान्य स्थिति थी।
दूसरे व्यक्ति जो क्लीन शेब्ड थे, बीच-बीच में जेब से मोबाइल फोन निकालते, समय देखते, फिर रख लेते। किसी जल्दी में होंगे, पर मुझे उनकी बातों से ऐसा बिल्कुल नहीं लगा। क्या पता आदतवश ऐसा कर रहे हों?
ट्रेन की खिड़की से हवा के रुख के कारण मेरी आंखें मिच रही थीं। पलकों की वजह से मैं सुरक्षित महसूस कर रहा था। धूल के कणों का भरोसा भला कौन करता है?
सामान्य श्रेणी का सफर हमें असली भारत के दर्शन कराता है। असली हिन्दुस्तान से आप मिलते हैं। लोगों को करीब से जानने-समझने का मौका मिलता है। बनावट तो कब की काले शीशों में कैद हो गयी होती है!
जारी है सफरनामा....
-Harminder Singh
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