एक कैदी की डायरी -22

मेरी मां मुझे बचपन में छोड़ गयी थी। न मुझे मां का पूरा प्यार मिल सका, न पिता का। जितने दिन मां मेरे साथ थी मैं बेफिक्र था। मुझे याद नहीं कि उसे हुआ क्या था? लेकिन इतना पता है कि वह अक्सर बीमार रहती। पिताजी घर पर कम रहते। वे एक ढाबे पर नौकरी करते थे -बर्तन मांजने से लेकर खाना बनाने तक। उनके साथ काम करने वाला भीकन मुझसे कहता,‘तेरा बाप हरफनमौला है।’

ढाबे का मालिक उनपर खूब भरोसा करता था। उन्हें अपने बीवी-बच्चे को देखने की फुर्सत नहीं थी। इसपर मां ने उनसे झगड़ा भी किया था। पिताजी कम बोलते थे। मां कहती रहती, वे सुनते रहते। मुझसे ज्यादा बात नहीं करते थे। कभी मुझे अपनी गोद में नहीं बिठाया। लेकिन मां की दवा-दारु में कोई कसर नहीं छोड़ी।

मैं अपने नाना-नानी को बहुत प्यारा था। मां के गुजर जाने के बाद नाना मुझे अपने साथ लेकर जाने लगे तो पिताजी नहीं माने। फिर वे सोच में पड़ गए क्योंकि वे घर पर तो रहते कम ही थे। मेरी उन्हें शायद फिक्र बाद में आयी या कारण जो भी रहा हो।

गांव से दादी आकर रहने लगीं। वे बूढ़ी थीं, कम दिखता था। इतना सब होने के बाद भी वे कचोड़ियां बहुत कमाल की बनाती थीं। मैं शौक से खाता। स्कूल में मेरे मित्र कहते कि मेरी दादी कचोड़ियां स्वादिष्ट बनाती हैं। जब मैं दादी को जाकर यह बताता तो वे गदगद हो जातीं। दुलार में मेरे सिर पर हाथ रख देतीं। मैं बच्चा था, प्यार का भूखा, दादी से लिपट जाता। ममता की छांव हमें जीने का आधार देती है।

मां की याद मेरा पीछा नहीं छोड़ती थी। रात को मैं कई बार नींद में चीख पड़ा था। दादी ने मुझे पुचकारा ताकि मैं चैन से सो सकूं।

दीवार पर मां की तस्वीर लगी थी। उसपर मैंने फूलों की माला डाल रखी थी। सप्ताह में तस्वीर पर नई माला चढ़ जाती और पुरानी माला से एक फूल निकालकर उसे थैले में डाल देता।

दादी कहती,‘क्या करता है तू बेटा?’

एक फूल मैं उनकी हथेली पर रख देता। इसपर वे भावुक हो जातीं और कहतीं,‘बहुत प्यार करता था न शारदा से। बड़ी नेक थी तेरी मां। तेरे बाप को मैं जानती हूं, वह पूरा नालायक है, मगर शारदा को वह भी नहीं भूला होगा।’

मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं अपने पिता से आंखें मिला पाता। पहले दिल की बात मां से कहता था, अब दादी से कहने लगा था।

बचपन प्रेम को खोजता है। उस समय मेरी जड़ें विकसित कहां हुई थीं, आखिर नन्हा पौधा ही तो था मैं।

-to be contd....

-Harminder Singh