रोने वाला बच्चा
कम्पार्टमेंट में भीड़ बढ़ती जा रही थी। मैं खिड़की की ओर था इसलिए मैं आराम से सांस ले सकता था। वैसे यात्री एक-दूसरे पर नहीं बैठे थे, लेकिन खड़ा कोई रहना नहीं चाहता था। जो महिलाएं अपने परिवार के साथ दाखिल हुई थीं, उनके लिए जगह बनाना कोई आसान काम नहीं था। थोड़ी मशक्कत करनी पड़ी और महिलाओं को इतनी जगह मिल गयी कि वे बैठ सकें। बच्चों को उन्होंने गोद में संभालने की कोशिश की, पर वे तो खिड़की से बाहर के दर्शन को आतुर थे।
मैं अपनी टांगों को बचाता-बचाता थक गया, लेकिन एक बच्चा जिसकी उम्र 7-8 साल होगी मेरी टांगों पर टिक गया। लगता था वह मेरी गोद में बैठ जायेगा। उसे कहीं बैठना नहीं था। बाकी तीन बच्चों का भी यही हाल था। उनमें एक लड़की मेरे सामने बैठे व्यक्ति से सट कर खिड़की के सीखचों को कसकर पकड़े बाहर आंखें फाड़कर देखने में व्यस्त थी। लगता था जैसे सभी पहली बार ट्रेन का सफर कर रहे हों। जब मैं छोटा था, तब मुझे भी इसी तरह आंखें फाड़कर पीछे छूटती चीजों को देखने की आदत थी।
महिलाओं में से एक के साथ दूध मूंहा बच्चा भी था। वह थोड़ा विराम लेकर रोता रहता मानो समय का पाबंद हो -टाइम की परख थी शायद उसे। मेरे लिए वह स्थिति तनावपूर्ण कही जा सकती है। वह मेरे कान के करीब था। कभी-कभी अपनी मां को गोद से मचलकर मुंह में मेरी कमीज को भर लेता। उसकी चिपचिपी राल से मेरा कंधा लगभग गीला हो चुका था।
अगले स्टेशन पर जब ट्रेन रुकी तो मैंने सोचा कि शायद लोग उतरें। मैं हैरान रह गया कि ट्रेन में इस तरह लोग घुसे कि स्थिति पहले से खराब हो गयी। मैं खिड़की से चिपकने को तैयार था। वह छोटा बच्चा जो अभी थोड़े समय से शांत था, अपनी लय में आ गया। उसकी मां उसे बार-बार थपक कर चुप करने की कोशिश करती। वह अब पहले से अधिक तेजी से रो रहा था। उसका मकसद मेरी समझ से बाहर था।
खैर मैं किसी तरह बैठा रहा। मुझे अपनी कमीज की हालत को देखकर खुद पर गुस्सा अधिक आ रहा था। इससे मैं खड़ा ही रहता।
बच्चे के मुंह में बिस्कुट का टुकड़ा दिया तो उसने उसे थोड़ा जीभ से चखा। गीला हो चुका बिस्कुट मां ने बच्चे के हाथ में थमाना चाहा तो वह तेजी से हाथ-पांव मारने लगा। इससे गीला टुकड़ा मेरी पैंट पर गिर गया। उसके निशान अच्छी तरह बन गये। उस समय उन्हें धोना नामुमकिन था। इस कारण मेरा रुमाल भी साफ नहीं रहा।
लगभग दो घंटे बाद हमारे कम्पार्टमेंट में लोग छंटे। उसके बाद तक भी बच्चे की रोने की गूंज मेरे कानों में गूंजती रही।
-Harminder Singh