‘क्या ऐसा हो नहीं सकता कि मैं फिर से जवान हो जाऊं? शायद अब ऐसा न हो। जो परिर्वतन होना था वह तो हो चुका। जो कुछ बदला है, वह लौट कर नहीं आ सकता। मैंने कभी सोचा नहीं था कि इंसान की दुनिया कितनी जल्दी पलट जाती है। हां, समय पलटा ही तो है। कल में जवान थी, और आज....।’ इतना कहकर काकी ने गहरी सांस ली।
फिर उसने कहा,‘.....आज जब अपने शरीर को देखती हूं, एहसास होता है कि यह सब अच्छा नहीं हो रहा।’
बूढ़ी काकी ने विराम लिया। यह विराम जरुर था, लेकिन केवल शब्द रुके थे, विचार अभी भी मंडरा रहे थे। उनका इतराना मन की चंचलता को इतने वर्षों बाद भी नहीं रोक पा रहा था। काया बूढ़ी हुई क्या हुआ, विचार अभी तक मचलते हैं। उनकी इठलाहट कहां थकी है?
काकी ने आगे कहा,‘वे दिन! वाह करने का मन करता है। तीव्रता को आंकना मुश्किल था, क्योंकि गति रुकती नहीं थी। हम इतनी ऊर्जा को अपने में भर चुके होते हैं कि वह हमें उत्साहित करती है। मगर आज ऐसा नहीं होता। शक्ति को क्षीण होने में समय लगा जरुर, पर इस वक्त वह शरीर को पुरानेपन का एहसास करा रही है। ऊर्जा थी जबतक काया में, उतावलापन भी था। ऊर्जा कम होने पर लगता है जैसे कुछ छिन गया हो। कहीं कुछ खो गया हो जैसे।’
मैं काकी को सुनता रहा। मैंने स्वयं के बारे में सोचना शुरु किया। वर्ष लगेंगे मुझे भी काकी की तरह होने में। शायद पुरानेपन का एहसास मैं भी कर सकूंगा इसी तरह।
मैंने अपने हाथों से अपने चेहरे का स्पर्श किया। फिर काकी के चेहरे को गौर से देखा।
तभी काकी बोली,‘झुर्रियों की सजावट देख रहे हो क्या?’
मैंने कुछ नहीं कहा। एकटक निहारता रहा था उस व्यक्ति को जो हर उस इंसान का प्रतीक है जिसने उम्र को आखिरी पलों तक जीने का साहस किया है। एक वृद्धा सफेद बालों वाली, बुढ़ापे की अपनी समझ का वितरण कर रही थी।
‘शायद झुर्रियां भी सजावटी होती हैं। शायद उनमें एक अलग चमक होती है। शायद वे इंसान की कहानी एक सांस में कह जाती हैं। तुम समझ लो कि झुर्रियां गहरी परछाइयों की तरह इंसान को लपेट रही हैं, ताकि उसे उम्र का पता चल सके।’ बूढ़ी काकी ने कहा।
मैं फिर सोच में पड़ गया। पिघली हुई बातें हमें कितना पिघला देती हैं। हम सोचते रह जाते हैं यूं ही चुपचाप की उम्र क्यों बढ़ती है? हम बूढ़ें क्यों होते हैं? जवानी का सुख बुढ़ापे में क्यों ठहर जाता है?
सवाल की शुरुआत एक से होती है, लेकिन जड़ से इतना कुछ निकल आता है कि सवाल खत्म ही नहीं होते।
-Harminder Singh
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