बचपन का आनंद



















उड़ती धूल पर दौड़ रहा सरपट
मुस्कराता हुआ मैं,
मां आज डांटेगी,
भय सता रहा मुझे.

कपड़े धुले थे,
हुई स्त्री भी,
पर नहीं की मैंने परवाह,
खेल बड़ा प्यारा है.

फिर सना धूल में,
कण चिपक रहे हैं,
साथ के बच्चे थके,
वे भी गंदे हुए.

भुला सब मैदान में,
मन की मनमानी जारी है,
चाहिए क्या, मिला सबकुछ,
यही तो बचपन का आनंद है.

-Harminder Singh