
कोहरा खतरनाक होता है। मामूली चूक भारी पड़ सकती है। मगर सड़कें रुकती नहीं चाहें कोहरा हो, रात का अंधेरा हो क्योंकि सफर जारी रहता है..
सुबह से कोहरा होने की उम्मीद न के बराबर थी। मौसम की जानकारी रखना मैंने कुछ दिन पहले ही बंद किया था लेकिन उस दिन चूंकि सफर लंबा था और काम जरुरी थी इसलिए अपडेट लेनी पड़ी।
मुश्किल से आधा घंटा इंतजार करना मुझे भारी नहीं लगा। चार-पांच यात्री मेरे करीब खड़े थे। उनकी मंजिल मालूम नहीं मगर सफर उसी दिशा था। एक व्यक्ति जिनकी कलाई पर घड़ी बंधी थी वे उसका इस्तेमाल अच्छी तरह कर पा रहे थे। उसका फीता थोड़ा पुराना था क्योंकि सलेटी रंग फीकापन लिए था। कंधे पर ट्रेवल-बैग बड़ी ही सहजता से उनकी चार उंगलियां संभाले था। कोट जिसका रंग काला मिश्रित नीला था उससे कम गाढे रंग की चुस्त पैंट के साथ अच्छी तरह रिश्तेदारी निभा रहा था। जूते चमड़े के लग रहे थे जिनमें फीते सुराखों से होकर गुजरे थे। उन महाशय का चेहरा किसी आम इंसान की तरह था जिसने इत्मीनान से उसे चमकाया था।

सभी यात्रियों में एक बात समान थी कि हमें ठंड महसूस हो रही थी तथा गंतव्य तक पहुंचने की जल्दी भी थी। जिन कोट-पैंट वाले जनाब का जिक्र मैं ऊपर कर चुका उन्हें किसी ने पीछे से ‘समीर’ कहकर पुकारा। पुकारने वाला उनका परिचित मालूम पड़ता था। दोनों गले मिले, मुस्कराये जीभर के, और ढेरों बातों का समागम देखने को मिला। दोनों लगता था कई सालों बाद मिले थे क्योंकि इतनी खुशी और तरावट लंबे अरसे बाद ही जान पहचान वालों के बीच देखने को मिलती है। समीर और उनका मित्र बोलते-बोलते नहीं थके। इतने में बस आ गयी।
मैं आगे से दूसरी सीट पर बैठ गया। वे दोनों ठीक मेरे पीछे वाली सीट पर सवार थे। गाड़ी चल दी। ड्राइवर ने पुराने गीत शुरु किये। लग रहा था सफर ‘सुरीला’ होने जा रहा है। बस का इंजन रफ्तार के साथ शोर पैदा कर रहा था। रफी, लता और किशोर के गीत शोर में मिलजुल चुके थे। फर्क इतना था कि यहां मुकेश के कद्रदान उसका इंतज़ार करते रह गये।
मैं सिकुड़कर बैठने की कोशिश में था कि अचानक शीशे से कोहरे के दर्शन हुए। बस की रफ्तार धीमी हो गयी। ड्राइवर ने चलती गाड़ी में ही सिगरेट सुलगा दी। उसे ऐसा करने से किसी ने रोका नहीं। मैं भी बुत की तरह बैठा था। पता नहीं क्यों उसने दो-तीन कश लेकर सिगरेट खिड़की से बाहर फेंक दी। सामने ठीक ड्राइवर के ऊपर वाले हिस्से पर लिखा था : धूम्रपान न करें।
कोहरे की चादर सफर के बढ़ने के साथ-साथ घनी होती जा रही थी। समीर और उनके मित्र की बातें खत्म नहीं हो रही थीं। वे अधिक ऊंचे सुर में नहीं बोल रहे थे। हंसी उन्हें आ रही थी, लेकिन शिष्टता में फूहड़ता को किनारे किया हुए था। अब मैं सिकुड़कर बैठा हुआ था। बस कभी तेज, कभी कम हो रही थी। सामने का विशाल शीशा कोहरे से धुंधला हो जाता तो वाइपर चल पड़ता। सड़क पर इक्का-दुक्का वाहन ही दिख रहे थे। कुछ लोग कंबल ओढ़कर अलाव तापते नजर आये। एक साइकिल वाला कमज़ोर दिखने वाला उम्रदराज़ धीमे-धीमे कैरियर पर लकड़ियों का छोटा गट्ठर ढो रहा था।
वाहनों के नजदीक जाने पर ही उनके डिपर दिख पा रहे थे। सुरीला संगीत सफर सुरीला करने पर तुला था।
ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी पहाड़ी इलाके में सफर कर रहे हों। चंद मीटर तक ही आंखें चीजों को खोज और समझ पा रही थीं। गति मुश्किल से 20 या तीस रही होगी।
एक स्थान पर अचानक बस ने जोरदार ब्रेक मारे। ट्रक ने गलत तरीके से ओवरटेक करना चाहा। इस घटना के बाद सभी हैरान थे। करीब 10-12 मिनट घटना का जिक्र यात्री आपस में करते रहे।
-Harminder Singh