कहानियां, अनगिनत किस्से और हजार बातें। उम्र रोके नहीं रुकती, जैसे समय ठहरे नहीं ठहरता। मैंने लोगों को बूढ़े होते करीब से देखा है। समझने की कोशिश में हूं कि हम बूढ़े होते क्यों हैं। जर्जर काया कंबल की तह की तरह क्यों हमसे लिपट जाती है। चिपक क्यों जाती है चमड़ी हड्डियों से। सहारे की क्यों होती है जरुरत उम्र के ढलने पर। ऐसे प्रश्नों का जबाव ढूंढना इतना आसान नहीं।
वक्त बीतने के साथ पुराना होने की बात हमने सुनी है। जीवन भी पुराना होता जाता है समय के साथ। पुर्जे जो हाड-मांस से बने हैं, उनमें शिथिलता आती जाती है।
मोहल्ले की ताई को अरसे से देख रहा हूं, वह नंगे पैर रहती है। उम्र ढल रही है। उसके पैरों की चमड़ी उतनी ही कसी हुई है क्योंकि वह सर्दी-गर्मी का पैदल चलने में अंतर नहीं करती। यह उसकी विशेषता है। बूढ़ी हो रही है लेकिन बुढ़ापे को हावी होने से रोक रही है स्वयं से लड़-झगड़कर। खुद को मनाना उसने सीख लिया है। एक अजब सा विश्वास उसने दिखाया है स्वयं के प्रति। यह उसकी खुद की शक्ति है। यहां वह योद्धा की तरह है जिसके लिए जंग का मैदान है जरुर लेकिन फिलहाल विजेता वही है।
समय पत्रिका का मार्च अंक पढ़ें
समय एक दिन करवट लेगा और कमजोर होगी बूढ़ी ताई भी। ‘तब की तब देखी जायेगी’-ऐसा वह जाने कितनी बार कह चुकी। देखा है उसने जमाना और उसमें सिमटी जिंदगियां। जवान बेटे को एक दशक से पहले खो चुकी। गांव छोड़कर शहर का रुख किया। खास पढ़ी नहीं, लिखी नहीं। जो सीखा अभ्यास से हासिल किया। जुटी रही परिवार के साथ। संभाले रखा सभी को। प्रेरणा बनी अपनों की जिन्होंने उससे जीना सीखा।
एक बार चारपाई भी पकड़ी उसने। लंबे समय तक बीमार रही। लगता था कि ताई अपने आखिरी वक्त में है। ताई को और जीना था और कई काम निपटाने थे जो शायद अबतक जारी हैं। अपनी पोतियों की शादी करनी थी जो उसने की। जब किलकारियां गूंजेंगी तब वह जश्न मनायेगी। जीभर झूमेगी, गीत गायेगी और खुशी के आंसू भी बहायेगी।
एक वक्त आयेगा ताई की चमड़ी जर्जरता में घुल जायेगी जिसकी शुरुआत हो चुकी। सहारे की जरुरत उसे अभी पड़ी नहीं, मगर जानती है वह कि ऐसा भी होगा एक दिन। प्रश्न वह खुद से करती है अनगिनत कि बूढ़ी होकर कैसे जियेगी। यकायक स्वयं में दृढ़ता का संचार पाती है। कहती है-‘हौंसले से जियेगी और जीभर जियेगी।’
सच है कि बुढ़ापा सच्चाई है। जो उसे बोझ समझकर जीते हैं असल में वे बुढ़ापा जीते हैं। जो उसे जिंदगी समझकर जीते हैं असल में वे जिंदगी ही जीते हैं।
-Harminder Singh
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वक्त बीतने के साथ पुराना होने की बात हमने सुनी है। जीवन भी पुराना होता जाता है समय के साथ। पुर्जे जो हाड-मांस से बने हैं, उनमें शिथिलता आती जाती है।
मोहल्ले की ताई को अरसे से देख रहा हूं, वह नंगे पैर रहती है। उम्र ढल रही है। उसके पैरों की चमड़ी उतनी ही कसी हुई है क्योंकि वह सर्दी-गर्मी का पैदल चलने में अंतर नहीं करती। यह उसकी विशेषता है। बूढ़ी हो रही है लेकिन बुढ़ापे को हावी होने से रोक रही है स्वयं से लड़-झगड़कर। खुद को मनाना उसने सीख लिया है। एक अजब सा विश्वास उसने दिखाया है स्वयं के प्रति। यह उसकी खुद की शक्ति है। यहां वह योद्धा की तरह है जिसके लिए जंग का मैदान है जरुर लेकिन फिलहाल विजेता वही है।
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समय एक दिन करवट लेगा और कमजोर होगी बूढ़ी ताई भी। ‘तब की तब देखी जायेगी’-ऐसा वह जाने कितनी बार कह चुकी। देखा है उसने जमाना और उसमें सिमटी जिंदगियां। जवान बेटे को एक दशक से पहले खो चुकी। गांव छोड़कर शहर का रुख किया। खास पढ़ी नहीं, लिखी नहीं। जो सीखा अभ्यास से हासिल किया। जुटी रही परिवार के साथ। संभाले रखा सभी को। प्रेरणा बनी अपनों की जिन्होंने उससे जीना सीखा।
एक बार चारपाई भी पकड़ी उसने। लंबे समय तक बीमार रही। लगता था कि ताई अपने आखिरी वक्त में है। ताई को और जीना था और कई काम निपटाने थे जो शायद अबतक जारी हैं। अपनी पोतियों की शादी करनी थी जो उसने की। जब किलकारियां गूंजेंगी तब वह जश्न मनायेगी। जीभर झूमेगी, गीत गायेगी और खुशी के आंसू भी बहायेगी।
एक वक्त आयेगा ताई की चमड़ी जर्जरता में घुल जायेगी जिसकी शुरुआत हो चुकी। सहारे की जरुरत उसे अभी पड़ी नहीं, मगर जानती है वह कि ऐसा भी होगा एक दिन। प्रश्न वह खुद से करती है अनगिनत कि बूढ़ी होकर कैसे जियेगी। यकायक स्वयं में दृढ़ता का संचार पाती है। कहती है-‘हौंसले से जियेगी और जीभर जियेगी।’
सच है कि बुढ़ापा सच्चाई है। जो उसे बोझ समझकर जीते हैं असल में वे बुढ़ापा जीते हैं। जो उसे जिंदगी समझकर जीते हैं असल में वे जिंदगी ही जीते हैं।
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