रविवार का दिन

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रात के नौ बजे हैं। सूई का कांटा ठीक 90 डिग्री का कोण बना रहा है। चाय की चुस्की और मग का साथ बेहतरीन है। वैसे चाय कम दूध में पत्ती मिली है।

‘बहती हवा सा था वो..’ यह गीत कई महीने बाद सुनने का मन किया, सो धीमी आवाज में बज रहा है। सच में इस गीत में खोने का मन करता है। डूब जाना चाहता है मन इसी आशय के साथ कि आवारा बादलों में क्यों न गोता लगा लिया जाये।

  दिन भर रत्ती भी दिमाग को परेशान नहीं किया। चैन से उठा। समय था आठ बजे का। सूरज चमक के साथ उगा हुआ था और उसकी रोशनी मुस्कराती हुई थी। जिंदगी चमक-दमक के साथ खुशी मना रही थी। कुछ पौधे अपनी हरियाली बिखेरने में लगे थे, तो कईयों की खामोशी आजकल कोपलों के जरिये फूट रही है। अंगूर की बेल अभी सोई है क्योंकि अगले महीने उसकी नींद टूटेगी चहकते हुए, खूबसूरत हरे पत्तों और लटाओं के साथ। होली आते-आते हम हरी चादर में सिमट जाते हैं। मुख्य सड़क से चंद मीटर की दूरी पर सीधे मगर थोड़े रास्ते के दो हिस्सों में बंटने के बाद जो सामने एक हरियाली बिखरेता घर आता है वहां हम सब रहते हैं-एक छोटा परिवार।

  रविवार छुट्टी का दिन है जानते हैं हम सभी। बिना उधेड़बुन के अनगिनत बातों और ख्वाहिशों को मुझे कागज पर उतारने का मन करता है। छुट्टी मैं अपनी कभी करता नहीं। कुछ नया सोचना और नये विचारों को खुला छोड़ना मेरी आदत बन गयी है। इस दिन कई लोगों से मिलता हूं। वे अपनी बात करते हैं, मेरी सुनते हैं, ओरों की सुनाते हैं। हम साथ में चहकते हैं, मुस्कराते हैं। सामाजिकता का एक एहसास करा जाता है मुझे रविवार।

  लग रहा है दिन बहुत तेजी के साथ बीत रहे हैं। जाने कितने रविवार आये और गये। आगे भी यह क्रम जारी रहने वाला है। है न अजीब, गुजरा वक्त सिर्फ यादों में सिमट कर रह जायेगा। मैं ऐसा ही कर रहा हूं। जाने कितने दिन मैंने पन्नों में यूं ही सिमेट लिये हैं। महीने के अंत में या समय-समय पर यादों के पन्नों को उलट कर जिंदगी के बीतने की खुशी मना लेता हूं। यह अपने में एक शानदार अनुभव होता है।

देखा जाये तो ऐसा करने से पल कभी मरते नहीं क्योंकि आप उन्हें उसी तरह संजोये हुए जो हैं।

  चाय का मग चंद मिनटों पहले भरा था। लेकिन ‘थ्री इडियेट्स’ का गीत लगातार जारी है, बार-बार बजता जा रहा है।
आज को जीना कितना अच्छा लगता है यह मैंने कई बार महसूस किया है। मगर पशोपेश हर बार आड़े आ ही जाता है। रविवार की छुट्टी भी कई बार उतनी सुकून भरी नहीं रह जाती।

  आज दिनभर रिमोट हाथ में रहा क्योंकि टी.वी. से निगाह हटाने का मन नहीं कर रहा था। चैनल बदलते-बदलते हाथ नहीं थका। हां, एक बार एक भावुक दृश्य के दौरान झपकी जरुर लगते-लगते बची। फिर दूसरे ही पल अमरीश पुरी ने चैंका दिया।

मेरे साथ यह पहली बार हुआ कि मैंने इतने घंटे टी.वी. देखा। सबसे मजेदार बात यह रही कि आज समाचार चैनल के दर्शन करना मैंने गवारा नहीं समझा। 200 चैनलों को पार करता हुआ मेरी उंगलियां ठहरी नहीं। रिमोट के बटन खराब भी नहीं हुए। लेकिन वे जरुर यह सोच रहे होंगे कि इतना तो हमें पिछले एक साल में नहीं दबाया गया जितना चंद घंटों में परेशान किया गया।

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  अब सबसे हैरान करने वाली बात।

  आज का रविवार करीब डेढ़ दशक से कम समय का पहला रविवार था जब मैंने अखबार का मुंह नहीं देखा। शायद इस लेख के बाद यह बात गलत साबित हो जाये, लेकिन रिकार्ड बनाने में क्या जाता है। अखबार बांटने वाला रोज साइकिल से आता था जल्दी अखबार पढ़ने को मिल जाता था। ऐसा नहीं था कि वह आज शाम के समय अखबार दे गया, बल्कि वह तो आज मोटरसाइकिल से बांट रहा था। आप समझ रहे होंगे कि मेरा दिमाग इस समय ठिकाने पर नहीं है। वह तो तब भी ठिकाने पर था जब मैं गेंद खोजता हुआ टिन शेड के तख्तों के खिसक जाने पर रुढ़कता हुआ गोली की रफ्तार से पक्के फर्श पर गिरा था। तब मेरी टांग में सिर्फ मोच आयी थी। सिर पर मामूली चोट तक नहीं थी-बाहर से भी और अंदरुणी भी।

  दरअसल मोटरसाइकिल के कारण वह घर से ही देर से निकला। रास्ते में टायर पंचर हुआ इसलिए देर कर बैठा। कमाल है न, उसने बताया कि यह पहली बार था कि वह साइकिल के बदले दूसरे वाहन से अखबार बांटने निकला और लेट हो गया। वह खुद पर यह बताते हुए क्या हंसता, मैं अपनी हंसी न रोका सका। वैसे भी हंसने मेंी किसी का क्या जाता है। सिर्फ दूसरा ही कई बार लजा जाता है।

  नहाने की सोची तब जब घड़ी में दस बजे। इसके पीछे छोटी कहानी यह कि बहुत समय बाद व्यायाम करने की याद आयी। ‘सुना है’ वाली बात नहीं बल्कि सच है कि व्यायाम नियमित हो स्नान से पहले तो शरीर तरोताजा रहता है।

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  अब स्नान करने वाला ही था कि मां कहीं से शहतूत की छंटाई करने वाले एक परिवार को ले आयीं। उन्हें समझाना पड़ा कि किन शाखाओं को छोड़ना और किन्हें काटना है। इस समय शहतूत में कोंपले फूंटती हैं। आमतौर पर पतझड़ वाले पेड़-पौधों की छंटाई पतझड़ के कुछ समय बाद करने की बात मुझे किसी ने बताई थी, लेकिन चूंकि हमने पहले विचार त्याग दिया था, अब फैसला बदल दिया। काफी समय के मुआयने के बाद छंटाई टीम ने अगले रविवार को यह काम अंजाम देने का मन बना लिया। उधर शाम होते-होते हमारा मन बदल गया। शहतूत की लकडि़यां कई मीटर तक सीधी हैं, मामूली तनाव के साथ, इसलिए उन्हें स्वयं ही काट कर ईंधन आदि में इस्तेमाल किया जा सकता है।

  दस बजने को हैं। पता नहीं चला कि कब एक घंटा गुजर गया। समय के बारे में एक रोचक बात यह है कि वह पीछे छूट जाता है और हमें मालूम ही नहीं रहता। यह समय की खासियत भी है।

  कल यानि सोमवार से नया दिन खिलेगा इसी वादे के साथ कि शनिवार के बाद फिर भागदौड़ थमेगी और मेरे जैसा इंसान समय को दौड़ते पायेगा।

  सच में जिंदगी एक दौड़ है जो सिर्फ आंखें बंद होने पर थमती है, चाहें जीते हुए या फिर उसके बाद।

-Harminder Singh

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