डायरी : गुमशुदा यादों का बसेरा

डायरी पता नहीं कहा गयी। शायद कहीं गुमनामी की जिंदगी बशर कर रही है। जालों की सजावट उसपर हो गयी होगी। जिंदगी में मोहब्बत कहीं भी हो सकती है। धूल को बिना चखे उसकी सौंधी महक मन को हरा कर देती है। लेकिन यहां धूल, जाले से लिपटी मेरी डायरी की जिल्द समय के साथ जर्जर होने को विवश होगी। 

डायरी मेरी जिंदगी नहीं, लेकिन चुनी हुई गुमशुदा यादों का बसेरा है। पलों की कहनियां हैं और एक दूसरे से जुड़कर चलती लताओं की तरह कश्मकश के दौर की बहती नदियां भी। 

मेरा सुख, मेरा दुख। चलती हुई तस्वीरों की अनगिनत बातें समेट कर रखी हैं मैंने उन पन्नों में। पन्ने खामोश हैं और रहेंगे, अक्षर बोलते हैं। 

गीत गाये कितने, संगीत की भाषा में झूमा। सफर जो तय किया, उसे दर्ज करता गया। चलता गया बिना बताये खुद को मगर कहीं राहें मुमकिन हुईं, कहीं नहीं। हताशा को करीब से जाना। खुशी के मौके पर आंसू से भिगोया भी। कहता गया जो हुआ। मुस्कुराता गया जो बीतता गया। 

डायरी में बसा हूं मैं। बसे हैं वे पल जो मैंने जिये। उन लम्हों को पढ़ा तो यादें ताजा हुईं। मन जी गया। फिर जीना चाहता हूं उन पलों को। लेकिन डायरी गुम है। डर है कहीं गुम न हो जाऊं मैं भी इसी तरह अनजाने में।

-हरमिन्दर सिंह चाहल

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