पुरानी चारपाई को वनवास देना पड़ा। इसमें केवल उसकी पुरानी बुनाई को समाप्त किया गया। लकड़ी से बना फ्रेम सही सलामत था, इसलिए उसका इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं थी। पिताजी ने बताया कि चार पाहे, दो लंबे और दो छोटे बांस से बना यह फ्रेम अभी बरसों तक किसी खतरे में नहीं।
सबसे पहले पुराने बान यानि वह रस्सी जिससे चारपाई को बुना गया था, उन्हें काटकर अलग किया गया। हालांकि कई साल पहले चारपाई हमने स्वयं बुनी थी जिसमें पिताजी ने लगभग 80 प्रतिशत से अधिक कार्य किया था। उन्होंने ऐसे घरेलू काम अपने दादा से सीखे हैं। जंजीरे की चारपाई बुनने में उन्हें महारथ हासिल है। इसकी उम्र भी दूसरे तरीकों की बुनाई से कई गुना होती है। समय जरुर दोगुना लगता है और मेहनत भी, लेकिन जो परिणाम आता है वह बहुत बेहतर होता है।
रस्सियों को एक तरीके से चारपाई में लगाया गया। दो खूंटियों का सहारा लेकर एक जंजीरनुमा डिजायन अंदर से किनारों पर बनाया जाता है। इसी कारण इस तरह की बुनाई को जंजीरे वाली बुनाई कहा जाता है। ताना बनाने में दो घंटे से अधिक समय लग गया। उसके बाद उसे बुनने का सिलसिला शुरु हुआ जो शुरुआत में कठिन होता है, लेकिन बाद में बुनाई आसान होती जाती है। इस प्रक्रिया में कई घंटे का समय लग जाता है।
जिन चारपाईयों का हम इस्तेमाल कर रहे हैं सभी जंजीरे की बुनाई से बनी हैं। उनकी बुनाई हमारे द्वारा की गयी है। गांवों में आज भी स्वयं की बुनाई से तैयार चारपाई मिलेंगी क्योंकि यह अच्छा काम है। एक आपके शरीर की कसरत हो जाती है और दूसरा पैसे की बचत। तीसरा यह कि आपका हुनर सही सलामत रहता है तथा ऐसे रचनात्मक कार्य करने से दिमागी कसरत भी होती है।
मैंने अपने पिताजी से इस तरह के कई कार्य सीखे हैं। बड़ों से चीजें सीखना और बाद में अपने बच्चों को वह सिखाना काफी हद तक हमें सामाजिक बनाये रखता है। इसी बहाने हमारी विरासत हमसे नहीं छूटती क्योंकि हम उसे अगली पीढ़ी में बांटते आ रहे हैं।
-हरमिन्दर सिंह.
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