आजाद भारत के रिसते घाव


उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था ठीक नहीं जिसके लिए सभी दलों के नेता और कथित धार्मिक मठाधीश उत्तरदायी हैं। इस राज्य में बार-बार गांवों और शहरों में मामूली बातों पर दंगे भड़क रहे हैं और हमारे नेता व कतिपय धार्मिक मठाधीश सामाजिक समरसता के प्रयास के बजाय आग में घी का कम कर अपना उल्लू सीधा करने में जुटे हैं। बार-बार पुलिस तथा सेना के बल पर ताकत का इस्तेमाल कर पीडि़त जनता को कुचलकर शांति कामय करने का प्रयास किया जा रहा है। नेता और नौकरशाहों के पास सुरक्षा की सारी व्यवस्थायें हैं और बेकसूर जनता गुंडे बदमाशों के हाथ मारी जा रही है। आगजनी और तोड़फोड़ में उनकी खून पसीने की कमाई और रोजी रोटी के साधन तबाह किये जा रहे हैं। इस सबके वावजूद इन वारदातों को बिल्कुल बंद करने के लिए इन समस्याओं के मूल तक जाने का कभी प्रयास नहीं किया गया। यदि ईमानदारी से यह पता लगाया जाये कि इस तरह की वारदातों को शुरु किसने किया और क्यों किया, तो उसके निदान का रास्ता निकालना बहुत कठिन नहीं लेकिन ऐसा करने के बजाय हमारे रहनुमा एक दूसरे पर अनापशनाप दोषारोपण कर घावों को भरने के बजाय उनपर नमक छिड़क कर विवाद को लंबा खींच उसे विस्तार देने लगते हैं।

  शांति बहाल करने के नाम पर जब शासन का दबाव नौकरशाही और पुलिस प्रशासन पर पड़ता है तो उसमें भी भेदभाव बरता जाता है। दोषी दंगाइयों के साथ बहुत से बेकसूर नवयुवकों को जेलों में ठूंस दिया जाता है। आम जनता के कमजोर तबकों के कई बेकसूरों की इस प्रकार न्याय के बहाने अन्याय कर बेशकीमती जिंदगी बरबाद की जाती है। आजादी के सात दशकों के करीब पहुंचने के बाद भी हमारे देश के शासकों ने अंग्रेजी शासन के दौरान जनता को निर्मम ढंग से शांत करने की प्रणाली ही अपना रखी है। इसे एक स्वतंत्र देश में किसी भी तरह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। किसी भी नेता या राजनेता ने आजतक ऐसे नये न्यायिक तंत्र के विकास के बारे में विचार तक करना प्रासंगिक नहीं समझा जो आपसी भाईचारे और सदभाव को कायम करने का सीधा और सरल मार्ग दिखाता हो।

  यह कितना दुखद और शर्मनाक है कि 15 अगस्त 1947 के बाद आजाद भारत में हम आपसी झगड़ों में जितने भाई-बंधु एक दूसरे के हाथों मारे गये उतने अंग्रेजीराज की दौ सौ वर्षों की गुलामी के दौरान भी नहीं मारे गये। हम लोगों में यदि मामूली समझ भी होती तो आजाद होते ही देश के विभाजन के समय मारे गये लाखों लोगों की मौत से सबक लेकर आपसी सौहार्द का परिचय देते हुए शांति पूर्वक प्रगति के मार्ग पर चलते जिससे आज विभिन्न धर्मों तथा सम्प्रदायों और संस्कृतियों का हमारा देश विश्व का सिरमौर बन चुका होता।

  अभी भी समय है कि हम सभी भारतीय ऐसे राजनेताओं और धार्मिक ठेकेदारों के बहकावे से बचें जो अपनी सत्ता के लिए बार-बार बहकाते रहे हैं। पवित्र त्योहारों और उत्सवों को मिलजुलकर मनायें ऐसे मौकों पर एक दूसरे का भरपूर सहयोग करें। ‘ना को बैरी, मीत बेगाना सगल संग हमको बनि आई’-गुरु ग्रंथ साहिब का यह महावाक हमें यही संदेश देता है।

-जी.एस. चाहल 
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